Tuesday, September 22, 2009

ग़ज़ल - हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते
चिराग़ रखते हैं, शम्सो-क़मर नहीं रखते।

हमने रूहों पे जो दौलत की जकड़ देखी है
डर के मारे ये बला अपने घर नहीं रखते।

है नहीं कुछ भी प ग़ैरत प आँच आये तो
सबने देखा है के कोई कसर नहीं रखते।

इल्म रखते हैं कि इंसान को पहचान सकें
उनकी जेबों को भी नापें, हुनर नहीं रखते।

बराहे-रास्त बताते हैं इरादा अपना
मीठे लफ़्जों में छुपा कर ज़हर नहीं रखते।

हम पहर-पहर बिताते हैं ज़िन्दगी अपनी
अगली पीढ़ी के लिये मालो-ज़र नहीं रखते।

दिल में आये जो उसे कर गुज़रते हैं अक्सर
फ़िज़ूल बातों के अगरो-मगर नहीं रखते।

गो कि आकाश में उड़ते हैं परिंदे लेकिन
वो भी ताउम्र हवा में बसर नहीं रखते।

अपने कन्धों पे ही ढोते हैं ज़िन्दगी अपनी
किसी के शाने पे घबरा के सर नहीं रखते।

कुछ ज़रूरी गुनाह होते हैं हमसे भी कभी
पर उसे शर्म से हम ढाँक कर नहीं रखते।

हर पड़ोसी की ख़बर रखते हैं कोशिश करके
रूसो-अमरीका की कोई ख़बर नहीं रखते।

हाँ ख़ुदा रखते हैं, करते हैं बन्दगी पैहम
मकीने-दिल के लिये और घर नहीं रखते।

घर फ़िराक़ और निराला का, है अक़बर का दियार
'अमित' के शेर क्या कोई असर नहीं रखते।


- अमित

शब्दार्थः
शम्सो-क़मर = सूरज और चन्द्रमा, बराहे-रास्त = सीधे - सीधे, शाने = कन्धे, पैहम = लगातार, मकीने-दिल = दिल का निवासी।

Wednesday, September 16, 2009

गीत - तुम मुझको उद्दीपन दे दो ...

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तुम मुझको उद्दीपन दे दो गीतों का उपवन दे दूँगा
थोड़ा सा अपनापन दे दो मैं सारा जीवन दे दूँगा।

मेरा तुमको कुछ दे देना जगप्रचिलित व्यापार नहीं है
और अपेक्षा रखना तुमसे बदले का व्यवहार नहीं है
जैसे यदि आराधन देदो श्रद्धासिक्त सुमन दे दूँगा।
तुम मुझको उद्दीपन दे दो ... ... ...

दुस्साहस भी कर सकता हूँ यदि तुम सम्बल देती जाओ
श्रम-सीकर से भय ही कैसा बस तुम आँचल झलती जाओ
सच कह दूँ संकेत मात्र पर तारों भरा गगन दे दूँगा।
तुम मुझको उद्दीपन दे दो ... ... ...

कमल कपूर भाँति उर मेरा कोमल और अग्नि शंकित है
जिस पर काला सा अतीत और धुंधला सा भविष्य अंकित है
यदि इसका अभिसार कर सको युग-प्रवाह नूतन दे दूँगा।
तुम मुझको उद्दीपन दे दो ... ... ...

-अमित
(१९८५-८६)
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मेरी रचनाये (http://amitabhald.blogspot.com)

Saturday, September 5, 2009

दस हाइकु

()
अप्रासंगिक
पुरानी परिपाटी
जीवन साथी

()
पीढ़ी-अन्तर
मैकडॉनल पिज़्ज़ा
चुपड़ी रोटी

()
अपराधी हैं?
सुरक्षित विहार
ये कारागार

()
धोबी की हत्या
घर का मालिक है
धोबी का कुत्ता

()
एक शिकारी
दफ़्तर सरकारी
किसकी बारी?

()
राष्ट्रीय पक्षी
देखो! राष्ट्रीय पशु
क्या है आदमी?

()
पुलिस आई
कुत्तों ने जेबें सूँघी
पुलिस गई

()
चैनल सन्त
चमत्कार अनन्त
दुखी का अन्त

()
गुरू घन्टाल
छन रहा है माल
चेला बेहाल

(१०)
खोमचेवाला
लगी है टकटकी
गर्ल्स हॉस्टल

Tuesday, September 1, 2009

कविता - वास्तविकता

ड्राइंग रूम में अपना एक चित्र लगाया है
जो मुझे आकर्षक दिखाता है
पर मेरे जैसा नहीं दिखता
एक तख्ती दरवाजे पर
उपाधियां दर्शाती है, मेरी
जिन्हें मैं जानता हूँ कि कागजी हैं
और ओढे रहता हूँ एक गंभीरता
कि लोग बहुत नजदीक न आ जाँय
जान लें मेरी वास्तविकता
लेकिन कभी-कभी सोचता हूँ
कि देंखूं
इन सबके बिना
मैं कैसा लगता हूँ|