Sunday, November 21, 2010

एक सरल सा गीत





आओ साथी जी लेते हैं
विष हो  या अमृत हो जीवन
सहज भाव से पी लेते हैं

सघन कंटकों भरी डगर है
हर प्रवाह के साथ भँवर है
आगे हैं संकट अनेक, पर
पीछे हटना भी दुष्कर है।
विघ्नों के इन काँटों से ही
घाव हृदय के सी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

नियति हमारा सबकुछ लूटे
मन में बसा घरौंदा टूटे
जग विरुद्ध हो हमसे लेकिन
जो पकड़ा वो हाथ न छूटे
कठिन बहुत पर नहीं असम्भव
इतनी शपथ अभी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

श्वासों के अंतिम प्रवास तक
जलती-बुझती हुई आस तक
विलय-विसर्जन के क्षण कितने
पूर्णतृप्ति-अनबुझी प्यास तक
बड़वानल ही यदि यथेष्ट है
फिर हम राह वही लेते हैं
आओ साथी जी लेते हैं

--अमित 

Thursday, November 4, 2010

दीपावली पर दो छन्द शार्दूलविक्रीड़ित के


शार्दूलविक्रीड़ित


यह १९ वर्णों का गणात्मक, यत्यात्मक वार्णिक छंद है जिसमें १२वें एवं १९वें वर्ण पर यति होती है
गणों का क्रम इस प्रकार है। (इस प्रगल्भता के लिये क्षमा करेंगे और यदि कोई त्रुटि हो तो अवश्य इंगित करें। प्रसिद्ध सरस्वती वन्दना- 'या कुन्देन्दु तुषार हार.... ' इसी छंद में है)


मगण सगण जगण सगण, तगण तगण गुरु
ऽऽऽ   ।। ऽ  ।ऽ।   ।।ऽ    ऽऽ।  ऽऽ।   ऽ 

जागी श्याम-विभावरी शुभकरी, दीपांकिता वस्त्रिता
कल्माशांतक ज्योति शुभ्र बिखरी, आलोकिता है निशा
ज्योतिष्मान स्वयं प्रतीचिपट से, सन्देश देता गया
दीपों की अवली प्रदीप्त कर दे, संपूर्ण पुण्या धरा

राकानाथ निमग्न हैं शयन में, तारावली दीपिता
तारों का प्रतिबिम्ब ही अवनि में, दीपावली सा बना
लक्ष्मी भी तज क्षीर-धाम उतरीं, देखी जु शोभा घनी
देतीं सी सबको प्रबोध मन में, जैसे सुसंजीवनी


-अमित


Tuesday, November 2, 2010

तीन मुक्तक


होली से 
दीवाली तक 























आत्म-केन्द्रित जग सीमित है अपनी ही खुशहाली  तक
अर्थहीन     शब्दों  से    लेकर  चिन्तन   की कंगाली तक
ऋतु-परिवर्तन     भी  शायद इनको  परिभाषित करता हो
जब   रिश्तों  की    मीयादें     हों   होली  से  दीवाली  तक

मेरी    जाती    कमी से लगते हो
किसी    खोई    ख़ुशी से लगते हो
जब से दुश्मन से मिलके आये हो
दोस्त, तुम अज़नबी से लगते हो


कुछ बातों कुछ संकेतों को प्यार समझ बैठे थे हम
कुछ वादों को जीवन का आधार समझ बैठे थे हम
नया  नहीं कुछ हुआ, भरोसे  टूटा करते  आये  हैं,

हाँ, उधार को ग़लती से उपहार  समझ बैठे थे हम

-अमित