Thursday, July 11, 2013

इन्हीं मेघों से...



इन्ही मेंघों से निकलकर
चंचला की श्रृंखलायें
सुपथ आलोकित करेंगी
इन्हीं मेघों से झरेंगी
सुधा की रसमयी बूँदे
पुनः नवजीवन भरेंगी



इन्हीं मेघों से फिसलकर
रश्मियाँ नक्षत्रपति की
इन्द्रधनु मोहक रचेंगी
इन्ही मेंघों से हुआ प्रेरित
पवन, सन्देश देगा
नेह की नदियाँ बहेंगी



इन्हीं मेघों से धुलेंगे
सभी कच्चे रंग, पक्के
रंग की निधियाँ बचेंगी
इन्हीं मेघों से हुआ
भयभीत क्यों मन
अरे! ऋतु के चक्र का है 
यही सावन





छँटेंगे जब मेघ
होगी पूर्णिमा
फिर से शरद की।





-अमित
चित्र:  १ एवं ३ स्वयं तथा २ एवं ४ गूगल से साभार।

Sunday, July 7, 2013

गीत- निद्रित नहीं उनींदा सा हूँ


निद्रित  नहीं उनींदा सा हूँ
स्नात नहीं पर भीगा सा हूँ

जग की विषम व्यथायें कितनी
निज की पीर-कथायें कितनी
उलझी मनोदशा से अपनी
त्रस्त नहीं पर खीझा सा हूँ

यह विस्तृत आयोजन क्या है
मेरा यहाँ प्रयोजन क्या है
जीवन एक समस्या अनगिन
अशक्यता में तीखा सा हूँ।

विडम्बनाओं की है गठरी
यंत्र-प्रचालित लगती ठठरी
व्यर्थ क्रियाओं के संकुल में
नट-क्रीड़ा को जीता सा हूँ।

क्या कर लूँ, क्या हो जाऊँ मैं?
तुष्ट सभी को कर पाऊँ मैं
पँसगें मैं जीवन है अपना
वक्र जगत में सीधा सा हूँ।

आशाओं का पुनर्वास कर
घोर अंधेरे में प्रयास कर
बढ़ता हूँ टटोल कर पथ को
मन्द नहीं पर फीका सा हूँ।

-अमित

शब्दार्थ: स्नात - नहाया हुआ, पासंग - तुला को सन्तुलित करने वाला भार
चित्र: 123RF.com से साभार द्वारा गूगल।