Monday, September 17, 2012

गीत - कब किसी ने प्यार चाहा




कब किसी ने प्यार चाहा
आवरण में प्यार के,
बस, देह का व्यापार चाहा

प्रेम अपने ही स्वरस की चाशनी में रींधता है
शूल कोई मर्म को मीठी चुभन से बींधता है
है किसे अवकाश इसकी सूक्ष्मताओं को निबाहे
लोक ने, तत्काल विनिमय 
का सुगम उपहार चाहा
कब किसी ने प्यार चाहा

प्रेम अपने प्रेमभाजन में सभी सुख ढूँढता है
प्रीति का अनुबंध अनहद नाद जैसा गूँजता है
है किसे अब धैर्य जो सन्तोष का देखे सहारा
लोक ने लघुकामना हित भी
नया विस्तार चाहा।
कब किसी ने प्यार चाहा

प्रेम की मधु के लिये कुछ पात्र होते हैं अनोखे
गहन तल, जो रहे अविचल, छिद्र के भी नहीं धोखे
कागज़ी प्याले कहाँ तक इस तरल भार ढोते
इसलिये परिवर्तनों का 
सरल सा उपचार चाहा।
कब किसी ने प्यार चाहा

शुद्धता मन की हृदय की और तन की माँगता है
हाँ! परस्पर वेदनाओं को स्वयं अनुमानता है
किन्तु इस स्वच्छन्द युग की रीतियाँ ही हैं निराली
प्रेम में उन्मुक्त विचरण का
अगम अधिकार चाहा।
कब किसी ने प्यार चाहा।

-अमित
चित्र - गूगल से साभार ।