Saturday, August 8, 2020

गीत -- जग तू मुझे अकेला कर दे।

 

जग तू मुझे अकेला कर दे।


इच्छा और अपेक्षाओं में

स्वार्थ परार्थ कामनाओं में

श्लिष्ट हुआ मन अकुलाता ज्यों

नौका वर्तुल धाराओं में

सूना कर दे मानस का तट

अब समाप्त यह मेला कर दे

जग तू मुझे अकेला कर दे।


सम्बन्धों के मोहजाल में

गुँथा हुआ अस्तित्व हमारा

चक्रवात में तृण सा घूर्णित

खोज रहा है विरल किनारा

मन-मस्तक के संघर्षों का

दूर अनिष्ट झमेला कर दे

जग तू मुझे अकेला कर दे।


व्यक्ति कहाँ मिलते हैं

मिलतीं, रूपाकार हुई तृष्णायें

टकराते विपरीत अभीप्सित

पैदा होती हैं उल्कायें

तम की यह क्रीड़ा विनष्ट हो

उस प्रभात की वेला कर दे

जग तू मुझे अकेला कर दे।

- अमित


गीत - साँस-साँस चन्दन होती है

 

साँस-साँस चन्दन होती है, जब तुम होते हो
अँगनाई मधुबन होती है, जब तुम होते हो

जब प्रवास के बाद कभी तुम, आते हो घर में
पुलकित सा सौरभ का झोंका,
लाते हो घर में
तुम्हें समीप देख कर बरबस अश्रु छलक जाते
आँखों में उमगन होती है,
जब तुम होते हो

रोम-रोम अनुभूति तुम्हारे, होने की होती
अधर-राग धुल जाता, बिंदिया भी, 

सुध-बुध खोती
संयम के तट-बंध टूटते, विषम ज्वार-बल से
मन की तृषा अगन होती है, 

जब तुम होते हो

कितने प्रहर बीत जाते हैं, काँधे सर रख कर
केश व्यवस्थित कर देते तुम, 

जो आते मुख पर
कितनी ही बातें होतीं, निःशब्द तरंगों में
रजनी वृन्दावन होती है, 

जब तुम होते हो


- अमित

गीत - सुन रहे हो..

 

सुन रहे हो!

बज रहा है मृत्यु का संगीत

मृत्यु तन की ही नहीं है

क्षणिक जीवन की नहीं है

मर गये विश्वास कितने

पर क्षुधा रीती नहीं है

रुग्ण-नैतिकता समर्थित

आचरण की जीत

सुन रहे हो!.....


ताल पर हैं पद थिरकते

जब कोई निष्ठा मरी है

मुखर होता हास्य, जब भी

आँख की लज्जा मरी है

गर्व का पाखण्ड करते

दिवस जाते बीत

सुन रहे हो!....


प्रीति के अनुबन्ध हो या

मधुनिशा के छन्द हो या

हों युगल एकान्त के क्षण

स्वप्न-खचित प्रबन्ध हों या

छद्म से संहार करती

स्वयं है सुपुनीत

सुन रहे हो!....


पहन कर नर-मुण्ड माला

नाचती जैसे कपाला

हँसी कितने मानवों के

लिये बनती मृत्युशाला

वर्तमानों की चिता पर

मुदित गाती गीत

सुन रहे हो.....


- अमित


गीत - तुम्हें कैसे बताऊँ...

 

तुम्हें कैसे बताऊँ
तुम मेरे मन के विवर में
विचरती रागिनी सी हो
तुम्हें कैसे बताऊँ

प्रलचय के बाद जब निर्जन भुवन में
लगे थे आदि मनु एकल यजन में
अप्रत्याशित तभी जैसे
मिली कामायनी सी हो।
तुम्हें कैसे बताऊँ।

मधुर विश्रांति के कोमल पलों में
छुअन स्नेहिल छिपाए अंचलों में
गगन से उतर कर आई हुई
मधुयामिनी सी हो
तुम्हें कैसे बताऊँ

झुलसता तन कभी अन्तः करण भी
डगमगाता कभी जब आचरण भी
जगत के तप्त वन में तुम
शरद की चाँदनी सी हो
तुम्हें कैसे बताऊँ

मुझे नैराश्य जब भी घेरता है
समय अनुकूल भी मुँह फेरता है
मरण के तुल्य पल में तुम
सहज संजीवनी सी हो
तुम्हें कैसे बताऊँ।

- अमित 

नवगीत - उसी पुरानी हाँड़ी में, अब कब तक भात पकायेंगे!


 उसी पुरानी हाँड़ी में

अब कब तक भात पकायेंगे!

युग बदला निर्मितियाँ बदलीं

सृजन और स्वीकृतियाँ बदलीं

बदल गये जीवन के मानक

यज्ञ और आहुतियाँ बदलीं

पुरावशेषों को बटोर कर

कब तक भूत जगायेंगे!


राजा, भाँट, विदूषक बदले

दरबारी, सन्देशक बदले

बदल गये तात्पर्य अर्थ के

मिथको के सँग रूपक बदले

सूप पीट कर कितने दिन तक

चिर दारिद्र्य भगायेंगे?


गोरी, पनघट, घूँघट बदले

सिकहर, चूल्हे, दीवट बदले

समय-रेत के परिवर्तन से

नदियों ने अपने तट बदले

बिगत हो चुके स्वर्ण काल पर

कब तक अश्रु बहायेंगे?


हर प्रभात का रवि नवीन है

अम्बर की हर छवि नवीन है

चिर-नवीन अनुभूति गीति की

युग-जीवी, जो कवि, नवीन है

जीर्ण तन्तुओं से बुनकर क्या

वस्त्र नवीन बनायेंगे?


-अमित


ग़ज़ल - मेरे वुजूद में जो शख़्स समाया सा लगे

मेरे वुजूद में जो शख़्स समाया सा लगे
बहुत अज़ीज है फिर भी वो पराया सा लगे
वो सुनाता है तो हर बात नई लगती है
मेरा बयान नया भी, तो सुनाया सा लगे
बेवफ़ाई में कभी उसका कुछ कुसूर नहीं
मेरी वफ़ा का हवाला भी बनाया सा लगे
ऐसे वादें हैं के सदमों से गुजर जाते हैं
मेरा तोड़ा सा लगे उसका निभाया सा लगे
आँसुओं से ही धुले दोनो ही चेहरे लेकिन
मेरा रोया सा लगे उसका रुलाया सा लगे

-अमित