कुछ सामयिक मुक्तक
(१)
पानी - पानी रंग हो गये।
मौसम सब बदरंग हो गये।
मुझसे तुम्हे जोड़ते थे जो,
वो गलियारे तंग हो गये।
(२)
सच पर इतने फन्दे क्यूँ हैं।
झूठे गोरखधन्धे क्यूँ है।
धृतराष्ट्रों के भी संजय हैं,
आँखों वाले अंधे क्यूँ हैं।
(३)
सच कहने से डरते क्यूँ हो।
घुट-घुट आहें भरते क्य़ूँ हो।
कौन मरा दो बार आज तक,
रोज-रोज फिर मरते क्यूँ हो।
(४)
मेरे घर बदहाली क्यूँ है।
सर से सटी दुनाली क्यूँ है।
वादों की फसलें अच्छी हैं,
थाली फिर भी खाली क्यूँ है।
(५)
कुत्ता अस्थि चबाता क्यूँ है।
हाकिम रिश्वत खाता क्यूँ।
कभी किसी ने पूँछा इनसे,
तू भी खा चिल्लाता क्यूँ है।
- अमित
सामुदायिक बिस्तर (कम्युनिटी बेड)
13 years ago
2 comments:
वाह! अमित जी,बहुत बधिया मुक्तक हैं|बधाई।
पानी - पानी रंग हो गये।
मौसम सब बदरंग हो गये।
मुझसे तुम्हे जोड़ते थे जो,
वो गलियारे तंग हो गये।
bahut acchhey!
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