Saturday, April 4, 2009

कुछ सामयिक मुक्तक

कुछ सामयिक मुक्तक

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पानी - पानी रंग हो गये।
मौसम सब बदरंग हो गये।
मुझसे तुम्हे जोड़ते थे जो,
वो गलियारे तंग हो गये।

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सच पर इतने फन्दे क्यूँ हैं।
झूठे गोरखधन्धे क्यूँ है।
धृतराष्ट्रों के भी संजय हैं,
आँखों वाले अंधे क्यूँ हैं।

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सच कहने से डरते क्यूँ हो।
घुट-घुट आहें भरते क्य़ूँ हो।
कौन मरा दो बार आज तक,
रोज-रोज फिर मरते क्यूँ हो।

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मेरे घर बदहाली क्यूँ है।
सर से सटी दुनाली क्यूँ है।
वादों की फसलें अच्छी हैं,
थाली फिर भी खाली क्यूँ है।

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कुत्ता अस्थि चबाता क्यूँ है।
हाकिम रिश्वत खाता क्यूँ।
कभी किसी ने पूँछा इनसे,
तू भी खा चिल्लाता क्यूँ है।

- अमित

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

वाह! अमित जी,बहुत बधिया मुक्तक हैं|बधाई।

पारुल "पुखराज" said...

पानी - पानी रंग हो गये।
मौसम सब बदरंग हो गये।
मुझसे तुम्हे जोड़ते थे जो,
वो गलियारे तंग हो गये।
bahut acchhey!