Monday, May 11, 2009

मुक्तक - प्रकीर्ण

है उड़ानों में चपलता और दाना चोंच में। पड़ गई है देख कर चिड़िया मुझे संकोच में। घोसले के पास तक उड़ती है पर घुसती नहीं, मैं न उसका आसियाना देख लूँ इस सोच में। अपनी ताकत आजमाना चाहता है। दूसरों को भी दिखाना चाहता है। मैं किसी मंदिर का घंटा हो गया हूँ, हर कोई जिसको बजाना चाहता है। जीवन की स्थितियों के ही अनुकूल गये। इतना सा है याद, बहुत कुछ भूल गये। मैं बापू के साथ मजूरी पर निकला, वो अपना बस्ता लेकर स्कूल गये। हालिया साँचों बिल्कुल फिट नहीं हूँ। दोस्तों की महफिलों में हिट नहीं हूँ। रंग मुझको भी बदलना चाहिये कुछ, आदमी हूँ क्या करूँ गिरगिट नहीं हूँ। आइये कुछ दूर चलिये जिन्दगी के साथ में। चीथड़ों का इक मुहल्ला उगा है फुटपाथ में। गन्दगी में बिलबिलाते मर्द, बच्चे, औरतें, प्लास्टिक का इक तिरंगा भी है उनके हाथ में। अमित

1 comment:

मुकेश कुमार तिवारी said...

प्रिय अमित,

यह बंद कुछ कुछ मेरी बात करता है बहुत अच्छा लगा :-

हालिया साँचों बिल्कुल फिट नहीं हूँ।
दोस्तों की महफिलों में हिट नहीं हूँ।
रंग मुझको भी बदलना चाहिये कुछ,
आदमी हूँ क्या करूँ गिरगिट नहीं हूँ।

अच्छा लिखा है।
सादर,

मुकेश कुमार तिवारी