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हे! अलक्षित।
व्याप्त हो तुम यों सृजन में
नीर जैसे ओस कन में
हे! अलक्षित।
तुम्हे जीवन में, मरण में
शून्य में वातावरण में
पर्वतों में धूल कण में
विरह में देखा रमण में
मनन के एकान्त क्षण में
शोर गुम्फित आवरण में
हे! अनिर्मित।
तुम कली की भंगिमा में
कोपलों की अरुणिमा में
तारकों में चन्द्रमा में
भीगती रजनी अमा में
पुण्य-सलिला अनुपमा में
ज्योत्स्ना की मधुरिमा में
हे! प्रकाशित।
गूढ़ संरचना तुम्हारी
तार्किक की बुद्धि हारी
सभी उपमायें विचारी
नेति कहते शास्त्रधारी
बनूँ किस छवि का पुजारी
मति भ्रमित होती हमारी
हे! अप्रस्तुत।
स्वयं अपना भान दे दो
दृष्टि का वरदान दे दो
रूप का रसपान दे दो
नाद स्वर का गान दे दो
और अनुपम ध्यान दे दो
मुझे शाश्वत ज्ञान दे दो
हे! अयुग्मित।अमित
7 comments:
anokha abhiwyakti
बहुत ही अच्छी रचना....
बहुत सुन्दर भाव।बधाई स्वीकारें।
स्वयं अपना भान दे दो
दृष्टि का वरदान दे दो
रूप का रसपान दे दो
नाद स्वर का गान दे दो
और अनुपम ध्यान दे दो
मुझे शाश्वत ज्ञान दे दो
हे! अयुग्मित।
अनुपम...अद्वितीय....
मन मुग्ध कर लिया आपकी रचना ने.....शब्दहीन कर दिया प्रशंशा कैसे करूँ....
आप की रचना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद.
itna rythum hai abhi zindgi me...dekh kar hairan hoon.kahan kho diya maine usey?
sambodhan alakshit ko hi kyon? ye mamla bhoutik bhi to ho sakta tha.......fir se sochen.....
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
भव्य रचना
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