एक रवायती (पारंपरिक) ग़ज़ल प्रस्तुत है|
यूँ चम्पई रंगत प सिंदूरी निखार है
इंसानी पैरहन में गुले-हरसिंगार है।
धानी से दुपट्टे में बसंती सी हलचलें
मौज़े-ख़िरामे-हुस्न कि फ़स्ले-बहार है।
गुजरा है कारवाने-क़ायनात इधर से
ये कहकशाँ की धुन्ध भी मिस्ले-गुबार है।
जिस पर भी पड़ गयी है निगहे-नाज़े-सरसरी
इंसाँ नियाजे-हुस्न का उम्मीदवार है।
आतिश जले कहीं भी पहुँचते हैं फ़ित्रतन
दीवानगी का अहद भी परवानावार है।
क्यूँ हुस्न प लगती रही पाक़ीज़गी की शर्त
पूछा कभी कि इश्क़ भी परहेजगार है।
इतने क़रीब से भी न गुजरे कोई 'अमित'
गो आग बुझ भी जाय प रहता शरार है।
अमित
शब्दार्थ:
पैरहन = वस्त्र, मौज़े-ख़िरामे-हुस्न = सौन्दर्य के चाल की तरंग, फ़स्ले-बहार= बसन्त
निगहे-नाज़े-सरसरी = मान से उक्त सरसरी निगाह,कहकशाँ= आकाश गंगा, मिस्लेगुबार = गुबार की तरह
नियाजे-हुस्न = हुस्न की कृपा, फ़ित्रतन = स्वाभाविक रूप से, अहद = प्रतिज्ञा, परवानावार = परवानो की तरह
पाक़ीज़गी = पवित्रता, परहेजगार= संयमी, शरार = चिंगारी।
सामुदायिक बिस्तर (कम्युनिटी बेड)
13 years ago
2 comments:
सर आपने बहुत ही अच्छा लिखा है
बहुत बढ़िया गजल ...
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