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आइये इक पहर यहीं बैठें
साथ सूरज के ढलें सुरमई अंधेरों में
सुने बेचैन परिन्दों की चहक
लौट कर आते हुये फिर उन्ही बसेरों में
आशियाँ सबको हसीं लगता है अपना, लेकिन
बस मुकद्दर में सभी के मकाँ नहीं होता
और हैरत है कि मस्रूफ़ियाते-दीगर में
इस कमी का मुझे कोई गुमाँ नहीं होता
उम्र कटती ही चली जाती है
इन दरख़्तों के तले, बेंच पे, फुटपाथों पर
कितने ही पेट टिके हैं देखें
दौड़ती पैर की जोड़ी पे और हाथों पर
रोज़ सूरज को जगाता हूँ सवेरे उठकर
रात तारों के दिये ढूँढ कर जलाता हूँ
वक़्ते-रुख़्सत की वो आँखें उभर सी आती हैं
जाने कितने ही ख़यालों में डूब जाता हूँ
ज़िन्दगी छोटी है, तवील भी है
मसअला भी है, इक दलील भी है
छोड़िये ये फ़िज़ूल की बहसें
आइये इक पहर यहीं बैठें
अमित
शब्दार्थ:
मसरूफ़ियाते-दीगर = अन्य व्यस्तताओं में
वक़्ते-रुख़्सत = विदा के समय
तवील = लम्बी
मसअला = समस्या
दलील = युक्ति
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रचनाधर्मिता (
http://amitabhald.blogspot.com/)
M
7 comments:
आसियाँ सबको हसीं लगता है अपना, लेकिन
बस मुकद्दर में सभी के मकाँ नहीं होता
और हैरत है कि मसरूफ़ियाते-दीगर में
इस कमी का मुझे कोई गुमाँ नहीं होता
पूरी नज्म लाजवाब है बधाई
दिल को छू गये आपके भाव। बधाई।
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सांसद/विधायक की बात की तनख्वाह लेते हैं?
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा ?
रोज़ सूरज को जगाता हूँ सवेरे उठकर
रात तारों के दिये ढूँढ कर जलाता हूँ ।
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना, बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
"आसियाँ सबको हसीं लगता है अपना, लेकिन
बस मुकद्दर में सभी के मकाँ नहीं होता
और हैरत है कि मसरूफ़ियाते-दीगर में
इस कमी का मुझे कोई गुमाँ नहीं होता.."
Apni baat si lagi.
आइये इक पहर यहीं बैठें..
धन्यवाद !!
क्या सोचने को विवश करती , कुछ बोला नहीं जाता , बस नज्म बहुत बढ़िया बन पड़ी है |
मैं जानती हूँ कि वही नज्में खूबसूरत होती हैं , जो यथार्थ की भट्टी में सुलग के आतीं हैं |
ज़िन्दगी छोटी है, तवील भी है
मसअला भी है, इक दलील भी है
छोड़िये ये फ़िज़ूल की बहसें
आइये इक पहर यहीं बैठें
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बहुत खूबसूरत और लाजवाब
दिल को छू लेने वाली रचना
'रोज़ सूरज को…'
'ज़िन्दगी छोटी है…'
बहुत ख़ूब!
टाइपिंग की भूलें खटकती हैं।
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