Tuesday, January 5, 2010

सत्य की शोक-सभा


अच्छा हुआ तुम नहीं आये
शोक सभा थी
तुम्हारी ही मृत्यु की
याद किया सभी ने तुम्हें
गुण गाये गये तुम्हारे
रहा दो मिनट?
का मौन भी
चर्चा थी, अंदेसा था सभी को
तुम्हारी मृत्यु का
पुष्टि नहीं की किसी ने
अफ़वाह की
जैसे सभी को प्रतीक्षा थी
इसी बात की
मै भी चुप रहा सब जान कर
फिर सोचा
सच होकर भी शर्मिन्दा हो
क्या सचमुच तुम जिन्दा हो
हर झूठ से डरते हो
मुझे तो लगता है
तुम रोज़ मरते हो
सभा समाप्त हुई
हम घर आये
अब क्यों खड़े हो मुहँ लटकाये
अरे भाई अच्छा हुआ
तुम नहीं आये।

अमित


रचनाधर्मिता (http://amitabhald.blogspot.com)

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सटीक!!


’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

-सादर,
समीर लाल ’समीर’

alka mishra said...

एक ही रचना ने आनंदित कर दिया ,मैं तो अभी पूरा ब्लॉग और सारे ब्लॉग पढ़ डालूंगी ,बड़े दिन बाद वास्तविक रचना पढने को मिली है
अच्छी कविता कह कर कोरम पूरा कर रही हूँ क्योंकि पूरा ब्लॉग अभी पढ़ना बाक़ी है
मैंने दो दिन पहले एक कविता लिखी थी किन्तु उससे मैं संतुष्ट नहीं हुई वह मेरे दूसरे ब्लॉग पर प्रकाशित है ,समय मिले तो उसे पढ़ कर बताईयेगा कि कमी क्या है जो मुझे असंतुष्ट कर रही है ,वैसे लोग तो तारीफ़ करके जा रहे हैं पर कहीं कुछ कम है