Sunday, July 7, 2013

गीत- निद्रित नहीं उनींदा सा हूँ


निद्रित  नहीं उनींदा सा हूँ
स्नात नहीं पर भीगा सा हूँ

जग की विषम व्यथायें कितनी
निज की पीर-कथायें कितनी
उलझी मनोदशा से अपनी
त्रस्त नहीं पर खीझा सा हूँ

यह विस्तृत आयोजन क्या है
मेरा यहाँ प्रयोजन क्या है
जीवन एक समस्या अनगिन
अशक्यता में तीखा सा हूँ।

विडम्बनाओं की है गठरी
यंत्र-प्रचालित लगती ठठरी
व्यर्थ क्रियाओं के संकुल में
नट-क्रीड़ा को जीता सा हूँ।

क्या कर लूँ, क्या हो जाऊँ मैं?
तुष्ट सभी को कर पाऊँ मैं
पँसगें मैं जीवन है अपना
वक्र जगत में सीधा सा हूँ।

आशाओं का पुनर्वास कर
घोर अंधेरे में प्रयास कर
बढ़ता हूँ टटोल कर पथ को
मन्द नहीं पर फीका सा हूँ।

-अमित

शब्दार्थ: स्नात - नहाया हुआ, पासंग - तुला को सन्तुलित करने वाला भार
चित्र: 123RF.com से साभार द्वारा गूगल।

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

दो किनारों से कहीं दूर, बीच धार में मध्यम सा..