गुरु तुम सम न कोई उपकारी
द्वार तुम्हारे आकर पाई
मैंनें सम्पति सारी
गुरु तुम बिन न कोई उपकारी
बुद्दि-विवेक विहीन फिरा मैं
तृष्णा से सब ओर घिरा मैं
हे करुणामय! तृप्त हुआ मैं
पाकर कृपा तुम्हारी
गुरु तुम बिन न कोई उपकारी
घोर निशा में दिशाहीन से
जल से बिछुड़ी हुई मीन से
भय-व्याकुल मन को चरणों की
धूलि हुई भयहारी
गुरु तुम बिन न कोई उपकारी
जब हो आर्त्त पुकारा मैंनें
पाया सदा सहारा मैंनें
श्रेय दिया प्रभु तुमनें मुझको
प्रेय दिया हितकारी
गुरु तुम बिन न कोई उपकारी
-अमित
1 comment:
शब्द शब्द में व्यापी कृतज्ञता।
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