Wednesday, May 6, 2009

ग़ज़ल - बतर्ज-ए-मीर

अक्सर ही उपदेश करे है, जाने क्या - क्या बोले है।
पहले ’अमित’ को देखा होता अब तो बहुत मुहँ खोले है।

वो बेफ़िक्री, वो अलमस्ती, गुजरे दिन के किस्से हैं,
बाजारों की रक़्क़ासा, अब सबकी जेब टटोले है।

जम्हूरी निज़ाम दुनियाँ में इन्क़िलाब लाया लेकिन,
ये डाकू को और फ़कीर को एक तराजू तोले है।

उसका मक़तब, उसका ईमाँ, उसका मज़हब कोई नहीं,
जो भी प्रेम की भाषा बोले, साथ उसी के हो ले है।

बियाबान सी लगती दुनिया हर रौनक काग़ज़ का फूल
कोलाहल की इस नगरी में चैन कहाँ जो सो ले है


अमित (06/05/09)

5 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया.

Vinay said...

बहुत ही लाजवाब

---
चाँद, बादल और शाम

ghughutibasuti said...

बढ़िया।
घुघूती बासूती

अमिताभ मीत said...

बहुत बढ़िया लिखा है ...... बधाई !!

नीरज गोस्वामी said...

वो बेफ़िक्री, वो अलमस्ती, गुजरे दिन के किस्से हैं,
बाजारों की रक़्क़ासा, अब सबकी जेब टटोले है।

उसका मक़तब, उसका ईमाँ, उसका मज़हब कोई नहीं,
जो भी प्रेम की भाषा बोले, साथ उसी के हो ले है।
बहुत खूब ग़ज़ल कही है अमित जी ने वाह...सारे के सारे शेर उम्दा हैं...बधाई
नीरज