एक पुरानी ग़ज़ल
उनको अब प्यार आ गया शायद
मुझको इंकार आ गया शायद
एक बेचैन सी ख़मोशी है
बक्ते-बीमार आ गया शायद
कुछ चहल-पलह है ख़ाकी-ख़ाकी
कोई त्योहार आ गया शायद
होश गु़म और लुटे-लुटे चेहरे
कोई बाज़ार आ गया शायद
खून की बू सी अभी आई है
अपना अख़बार आ गया शायद
अमित (१९९४)
Mob:
सामुदायिक बिस्तर (कम्युनिटी बेड)
13 years ago
4 comments:
खून की बू सी अभी आई है
अपना अख़बार आ गया शाय
पूरी गज़ल ही लाजवाब है बधाई
खून की बू सी अभी आई है
अपना अख़बार आ गया शायद
waah waah aise kamaal ki baat aap hi kah sakte ho
bahut khoob
समसामयिक यथार्थ का स्पष्ट व बेलाग चित्र खींचती एक सुन्दर गज़ल !
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वक़्त-ए-बीमार आ गया शायद'
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कोई त्योहार आ गया शायद'
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कोई बाज़ार आ गया शायद'
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अपना अख़बार आ गया शायद'
क्या कहूं! हर शेर लाजवाब!, बेहतरीन!
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