Thursday, January 22, 2009

नई कविता - परम्परा का अनुकरण

परम्परा का अनुकरण


परम्परा का अनुकरण
या अनुकरण की परम्परा।
भीड़ चारों ओर
चिल्ल-पों और शोर।
भीड़, भीड़ों से घिरी,
भीड़, भीड़ों में गुथी,
भीड़ भी निरुपाय है,
भीड़ ही समुदाय है।
यन्‍त्र-चालित दौड़,
नहीं जिसमें,
स्वाँस का अवकाश।
लगी ऐसी होड़,
छिले घुटने,
ठोकरों ने तोड़ डाले,
पोर अँगुली के।
नाक से, मुँह से हुआ है,
रक्‍तपात।
किन्‍तु फिर भी,
दौड़ने को विवश।
भय है!
भीड़ से पीछे न रह जायें कहीं।
हम अकेले,
गुम न हो जायें कहीं।
अनुकरण की परम्परा
या परम्परा का अनुकरण।


--अमिताभ

Thursday, January 8, 2009

कुछ भूलें ऐसी हैं, जिनकी याद सुहानी लगती है।

कुछ भूलें ऐसी हैं, जिनकी याद सुहानी लगती है।
कुछ भूलें ऐसी जिनकी चर्चा बेमानी लगती है।

कुछ भू्लों के लिये शर्म भी आई हमको कभी-कभी,
कुछ भूलों की पृष्ठभूमि बिल्कुल शैतानी लगती है।

कुछ भूलों की विभीषिका से जीवन है अब तक संतप्त,
कुछ भूलों की सृष्टि विधाता की मनमानी लगती है।

कुछ भूलें चुपके से आकर चली गईं तब पता चला,
कुछ भूलों की आहट भी जानी पहचानी लगती है।

कुछ भूलों में आकर्षण था, कुछ भूलें कौतूहल थीं,
कुछ भूलों की दुनियाँ तो अब भी रुमानी लगती है।

कुछ भूलों का पछतावा है, कुछ में मेरा दोष नहीं,
कुछ भूलें क्यों हुईं, आज यह अकथ कहानी लगती है।