Thursday, December 31, 2009

नव वर्ष मंगलमय हो!

आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक मंगलकामनायें!
रचें ज्योति के पत्र पर सर्जना के,  नये विम्ब फिर से नई लेखनी  से।
नये गीत गायें  नई  कल्पना के,  नई भंगिमा से  नई  रागिनी   से।
उड़ें रंग उल्लास के हर दिशा  में, नई  भोर  की  कुंकुमी  रोशनी  से।
नये वर्ष का आगमन हो  कि जैसे, नखत कोई उतरा हो मन्दाकिनी से।
अमित

Friday, December 25, 2009

प्रसाद

जलती हैं हमारी हड्डियाँ
समिधा बन कर
हमारा ही श्रम बनता है
हविष्य
और प्रज्ज्वलित करते हैं उसे
हमारे ही श्रम-बिन्दु
घृत बन कर
पड़ता है, हमारे समर्पण का तुलसीदल
भोग की हर वस्तु में
लेकिन!
प्रसाद की कतार में
होते हैं सबसे बाद में
पहुँचते-पहुँचते जहाँ तक
हो जाता है रिक्त
थाल प्रसाद का।

अमित

Thursday, December 17, 2009

नज़्म - मेरी गुर्बत को मत नापो

मेरी गु़र्बत को मत नापो
मुझे गु़र्बत से मत नापो
मैं जीवन की सही पहचान रहना चाहता हूँ
मेरी सनदों को मत नापो
मुझे सनदों से मत नापो
मैं अपने अह्द में ईमान रहना चाहता हूँ
मेरे ओहदे को मत नापो
मुझे ओहदे से मत नापो
मैं अदना सा बस इक इंसान रहना चाहता हूँ
मेरी शोहरत को मत नापो
मुझे शोहरत से मत नापो
मैं मुश्किल में भी इक मुस्कान रहना चाहता हूँ
मेरी ग़फ़्लत को मत नापो
मुझे ग़फ़्लत से मत नापो
मैं सब कुछ जान कर अंजान रहना चाहता हूँ

अगर तुम नाप सकते हो
तो मेरी आशिकी नापो
जुनूने-ज़िन्दगी नापो
जुर‍अते-शायरी नापो

मेरी खुद्दार नज़रों में
कभी आसूदगी नापो
मईशत की तराजू पर
कभी नेकी-बदी नापो
अगर तुम नाप सकते हो

मिज़ाजे-अफ़सरी नापो
ज़मीरे-कमतरी नापो
हुकूमत के वज़ीरों की
कभी दानिशवरी नापो

अंधेरों के भवँर नापो
उजालो के कहर नापो
नफ़स में फैलता जाता
सियासत का ज़हर नापो
अगर तुम नाप सकते हो!

अगर यह काम मुश्किल है
तो मुझको यूँ ही रहने दो
मैं अपना वैद खुद ही हूँ
मुझे उपचार करने दो

मैं जीवन की सही पहचान रहना चाहता हूँ
मैं अपने अहद में ईमान रहना चाहता हूँ
मैं अदना सा बस इक इंसान रहना चाहता हूँ
मैं मुश्किल में भी इक मुस्कान रहना चाहता हूँ
मैं सब कुछ जान कर अंजान रहना चाहता हूँ


'अमित'
शब्दार्थ:
गु़र्बत = गरीबी, कंगाली ; सनदों = प्रमाणों (प्रमाणपत्रों)
अह्द = प्रतिज्ञा, वचन; ग़फ़्लत = असावधानी, भूल
खुद्दार = स्वाभिमानी; आसूदगी = संतोष, तृप्ति;
मईशत = जीविका; दानिशवरी = बुद्धिमत्ता;
नफ़स = साँस; वैद = वैद्य

Sunday, December 13, 2009

मुक्तक

रुत बदलने से कुछ नहीं होगा
रात ढलने से कुछ नहीं होगा
आइने में खरोंच है साथी
आँख मलने से कुछ नहीं होगा
अमित

Thursday, December 10, 2009

ग़ज़ल - लिहाफ़ों की सिलाई खोलता है

लिहाफ़ों की सिलाई खोलता है
कोई दीवाना है सच बोलता है।

बेचता है सड़क पर बाँसुरी जो
हवा में कुछ तराने घोलता है।

वो ख़ुद निकला नहीं तपती सड़क पर
पेट पाँवों पे चढ़ कर डोलता है।

पेश आना अदब से पास उसके
वो बन्दों को नज़र से तोलता है।

याद रह जाय गर कोई सुखन तो
उसमें सचमुच कोई अनमोलता है।


-- अमित

Monday, December 7, 2009

अपौरुषेय

शब्द स्वयं चुनते हैं, अपनी राह
बैसाखियों पर टिके शब्द
हो जाते हैं धराशायी
बैसाखियों के टूटते ही|
बहुत पाले और संवारे हुये शब्द भी
गल जाते हैं, समय की आंच में
जीवित रह जाते हैं वे शब्द
जिन्होने
छुआ हो जीवन को
बहुत समीप से
इन्ही में से कुछ
हो जाते हैं
शब्दकार से स्वतन्त्र
और उनसे भी बड़े
अतिक्रमण करके काल का
यही कालजयी
हो जाते हैं
अपौरुषेय!

-अमित  

Friday, December 4, 2009

नज़्म - आइये इक पहर यहीं बैठें


आइये इक पहर यहीं बैठें
साथ सूरज के ढलें सुरमई अंधेरों में
सुने बेचैन परिन्दों की चहक
लौट कर आते हुये फिर उन्ही बसेरों में

आशियाँ सबको हसीं लगता है अपना, लेकिन
बस मुकद्‌दर में सभी के मकाँ नहीं होता
और हैरत है कि मस्रूफ़ियाते-दीगर में
इस कमी का मुझे कोई गुमाँ नहीं होता

उम्र कटती ही चली जाती है
इन दरख़्तों के तले, बेंच पे, फुटपाथों पर
कितने ही पेट टिके हैं देखें
दौड़ती पैर की जोड़ी पे और हाथों पर

रोज़ सूरज को जगाता हूँ सवेरे उठकर
रात तारों के दिये ढूँढ कर जलाता हूँ
वक़्ते-रुख़्सत की वो आँखें उभर सी आती हैं
जाने कितने ही ख़यालों में डूब जाता हूँ

ज़िन्दगी छोटी है, तवील भी है
मस‍अला भी है, इक दलील भी है
छोड़िये ये फ़िज़ूल की बहसें
आइये इक पहर यहीं बैठें


अमित
शब्दार्थ:
मसरूफ़ियाते-दीगर = अन्य व्यस्तताओं में
वक़्ते-रुख़्सत = विदा के समय
तवील = लम्बी
मस‍अला = समस्या
दलील = युक्ति


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रचनाधर्मिता (http://amitabhald.blogspot.com/)
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