Friday, September 24, 2010

नवगीत - एक प्रवासी



















लौट! घर चल मुसाफ़िर

कहाँ अब आसरा परदेश में है
यहाँ छल
का चलन हर वेश में है
नेह के नीर आँखों में नहीं हैं
स्वार्थ के रेशमी कल हर कहीं हैं
बहुत रोका तुझे
बरबस गया फिर
लौट! घर चल मुसाफ़िर

तेरा अधिवास तेरे गाँव में है
भले ही पेड़ की लघु छाँव में है
यहाँ कितना! बसेरे का किराया
दण्ड भी! यदि न वादे पर चुकाया
गया कोई तो
आया है नया फिर
लौट! घर चल मुसाफ़िर

शहर की याद होगी साथ तेरे
नियति की वर्तिका पर शलभ-फेरे
 
जहाँ घुमड़े कभी बादल घनेरे
वहीं मरुथल ने डाले आज डेरे
न आशा में कोई
दीपक जला फिर
लौट! घर चल मुसाफ़िर

Sunday, September 5, 2010

ग़ज़ल - तलाशे-इश्क़ में सारी उमर तमाम हुई

















तलाशे-इश्क़ मे सारी उमर तमाम हुई
आके दहलीज पे इक बेवफ़ा के शाम हुई

ग़मे-फ़िराक़, ग़मे-कार, ग़मे-तनहाई
ज़िन्दगी रोज़ नये हादिसों के नाम हुई

क़त्ल उम्मीद हुई लब से पयाला फिसला
मजाले-ज़ीस्त थी जो शै वही हराम हुई

कौन क्या राज़ छुपाये है किसे क्या मालूम
नवाये-नफ़स भी मेरी सदाये-आम हुई

पैकरे-ख़ाक को फिर खा़क में मिलना है ’अमित’
है ये अफ़सोस के मिट्टी मेरी बदनाम हुई
अमित
शब्दार्थः- ग़मे-फ़िराक़= वियोग का दुःख; ग़मे-कार= कार्य या उद्यम का दुःख; ग़मे-तनहाई=एकाकी होने का दुःख; हादिसों = दुर्घटनाओं, विपत्तियो; मजाले-ज़ीस्त = जीवन की शक्ति; नवाये-नफ़स=साँस की आवाज़; सदाये-आम=सामान्यजन की पुकार; पैकरे-ख़ाक=मिट्टी का शरीर।