Thursday, February 24, 2011

बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु - निराला


 
बसन्त पन्चमी पर निराला जी की स्मृति में निम्न कविता लिखी थी परन्तु समय और सुविधा के अभाव में प्रेषित नहीं कर सका था। आज प्रेषित कर रहा हूँ क्योंकि बसन्त ऋतु तो अभी भी है।


था यहाँ बहुत एकान्त बन्धु
नीरव रजनी सा शान्त बन्धु
दुःख की बदली सा क्लान्त बन्धु
नौका-विहार दिग्भ्रान्त बन्धु

तुम ले आये जलती मशाल
उर्जस्वित स्वर देदीप्य भाल
हे! कविता के भूधर विशाल
गर्जित था तुममें महाकाल

भाषा को दे नव-संस्कार
वर्जित-वंचित को दे प्रसार
कविता-नवीन का समाहार
करने में जीवन दिया वार

विस्मित है जग लख, महाप्राण!
अप्रतिहत प्रतिभा के प्रमाण
नर-पुंगव तुमने सहे बाण
निष्कवच और बिन सिरस्त्राण

अब श्रेय लूटने को अनेक
दादुर मण्डलियाँ रहीं टेक
कैसा था साहित्यिक विवेक
छिटके थे करके एक-एक

झेले थे कितने दाँव बन्धु
दृढ़ रहे तुम्हारे पाँव बन्धु
है, यह मुर्दों का गाँव बन्धु
बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु

'अमित'