Thursday, March 25, 2010

ग़ज़ल - वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं।


अब अंधेरों में उजालों से डरा करते हैं
ख़ौफ़, जुगनूँ से भी खा करके मरा करते हैं

दिल के दरवाजे पे दस्तक न किसी की सुनिये
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैं

उनका अन्दाज़े-करम उनकी इनायत है यही
वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं

गुनाह वो भी किये जो न किये थे मैंने
यूँ कमज़र्फ़ों के किरदार गिरा करते हैं

तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं

अमित

शब्दार्थ:
अन्दाज़े-करम = कृपा करने का तरीका, इनायत = कृपा, कमज़र्फ़ों = तुच्छ लोगों, किरदार = चरित्र, तंज़ = कटाक्ष, सराब(फ़ारसी पुल्लिंग) = मृगतृष्णा या मृगजल।

Friday, March 19, 2010

गज़ल - झूठ का पर्दा खोला जाए|


झूठ का  पर्दा  खोला  जाये
फिर, सच को भी तोला जाये

पीछे खुसुर-फुसुर से बेहतर
मुँह पर ही कुछ बोला जाये

धधक उठेगी आग वहाँ तक
जहाँ  बात  का  शोला जाये

औरों की  नीयत से  पहले
खु़द को चलो  टटोला जाये

धूप हक़ीक़त की पड़ते ही
पिघल मोम सा चोला जाये

सीले   बारूदों   से   कैसे
इंकिलाब का गोला जाये

पब्लिक को पैदल करके वो
चढ़ कर उड़नखटोला  जाये

मुखिया कैसा, अपने दम पर
जिससे चला न डोला  जाये

ताक़त दिखलाने का नुस्ख़ा
ज़हर फ़ज़ा  में घोला  जाये

चढ़ती - गिरती  हैं   उम्मीदें
जैसे  कोई    हिंडोला  जाये

'अमित' क्रोध और लाचारी से
दिल पर निकल फफोला जाये


-- अमित 
शब्दार्थ:  फ़ज़ा = माहौल, वातावरण।
(चित्र: गूगल से साभार)

Tuesday, March 16, 2010

नवगीत - कुछ तो कहीं हुआ है



कुछ तो कहीं हुआ है, भाई
कुछ तो कहीं हुआ है
झमझम बारिश है बसंत में
सावन में पछुआ है
कुछ तो कहीं हुआ है

हुई कूक कोयल की गायब
बौर लदी अमराई गायब
सरसों फूली सहमी-सहमी
फागुन से अँगड़ाई गायब
मौसम-चक्र पहेली जैसा
मानव ज्यों भकुआ है
कुछ तो कहीं हुआ है

जीवन से जीविका बड़ी है
मन, मौसम में जंग छिड़ी है
मानव का अस्तित्त्व गौण है
नास्डॉक पर नज़र गड़ी है
पीछे गहरी खाँई उसके
आगे पड़ा कुआँ है
कुछ तो कहीं हुआ है

तुलसी-सूर-कबीर कहाँ तक
देगें साथ फ़कीर कहाँ तक
घोर कामना के जंगल में
राह दिखायें पीर कहाँ तक
राम नाम जिह्वा पर लेकिन
चिन्तन में बटुआ है
कुछ तो कहीं हुआ है


-- अमित
नास्डॉक = नैज़्डॉक = NASDAQ = National Association of Securities Dealers Automated Quotations
भकुआ (देशज शब्द) = हतबुद्धि।

Saturday, March 13, 2010

ग़ज़ल - बजाहिर खूब सोना चाहता हूँ



बजाहिर खूब सोना चाहता हूँ
हक़ीक़त है कि रोना चाहता हूँ


अश्क़ आँखों को नम करते नहीं अब
जख़्म यादों से धोना चाहता हूँ


वक़्त बिखरा गया जिन मोतियों को
उन्हे फिर से पिरोना चाहता हूँ


कभी अपने ही दिल की रहगुजर में
कोई खाली सा कोना चाहता हूँ


नई शुरूआत करने के लिये फिर
कुछ नये बीज बोना चाहता हूँ।


गये जो आत्मविस्मृति की डगर पर
उन्ही में एक होना चाहता हूँ।


भेद प्रायः सभी के खुल चुके हैं
मैं जिन रिश्तों को ढोना चाहता हूँ


नये हों रास्ते मंजिल नई हो
मैं इक सपना सलोना चाहता हूँ।


’अमित’ अभिव्यक्ति की प्यासी जड़ो को
निज अनुभव से भिगोना चाहता हूँ।

Friday, March 12, 2010

एक मुक्तक दो सन्दर्भ

कभी एक मुक्तक श्रृंगार का लिखा था| बाद में परिवेश बदला सन्दर्भ बदले तो सौंदर्य के प्रतिमान भी बदले| पहले मुक्तक में शास्त्रीय अलंकरण हैं| बाद में इसे मैंने आज के परिदृश्य में रखना चाहा तो इसमे सौन्दर्य की जगह हास्य उत्पन्न हो गया| आप स्वयं देखें और निर्णय दें|
(१९९१)
गाँव ख़ुशबू का बस गया होगा, तुम जहाँ फूल से खिले होगे
रस्ते-रस्ते  मचल उठे होंगे, जिनपे  तुम दो कदम चले होगे
नूपुर औऽ हार, कंगन औऽ काजल, भाग्य अपना सराहते होंगे
वो तो पागल ही हो गया होगा जिससे तुम एक पल मिले होगे

(२०१०)
मॉल ख़ुशबू का बन गया होगा, तुम जो परफ़्यूम से खिले होगे
सारे रस्ते मचल उठे होंगे,  जिनपे  तुम  कार  से चले होगे
जींस और टॉप, चस्मा औऽ सेल्युलर भाग्य अपना सराहते होंगे
वो तो बेमौत मर गया होगा जिससे तुम हाय! कर चले होगे


--अमित 

Sunday, March 7, 2010

गज़ल - थोड़े मतभेद हो गये


थोड़े मतभेद हो गये
निष्ठा में छेद हो गये

रक्त-संग रक्त थे मगर
निकले तो स्वेद हो गये

आई जब इश्क़ की समझ
बाल ही सफ़ेद हो गये

अनपढ़ के अटपटे वचन
समझा तो वेद हो गये

ऐसा कुछ हो गया 'अमित'
अपने ही खेद हो गये



अमित

Saturday, March 6, 2010

एक क़ता

दिल न होने से तो पत्थर का भी दिल अच्छा है
नाला-ए-हक़ पे किसी रोज़ धड़क सकता है
पौध शोलों की लगाने से पेशतर सोचो
कभी ये अपने भी दामन में भड़क सकता है


अमित
नाला-ए-हक़ = सत्य की चीत्कार

Thursday, March 4, 2010

एक आरम्भिक कविता

पुरानी डायरी के पन्नों से आरम्भिक काल की एक कविता मिल गई है। आप से बाँटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। आप देख कर जान ही जायेंगे कि शैली जय शंकर प्रसाद जी से प्रभावित है।

आज भी वहीं खड़ा उद्दीप्त
विश्वधारा में मैं निरुपाय
खोजता हूँ बस एक आलम्ब
यजन करने का तुच्छ उपाय

निशा है आज हुई शशि-मुक्त
किरण भी आशा की है लुप्त
जानता होगा विश्वाधार
जीव  फिर
क्यों शरीर से युक्त

संकलित है स्मृति अवशेष
भग्न उस रेत-भीति के चिह्न
जिसे देने को नूतन रूप
हो गये थे दो पथिक अभिन्न

जीव का प्रेम जीव से किन्तु
शरीरों का कैसा भ्रम जाल
रहा करता जल सागर मध्य
हो सका क्या जलगत पाताल

हवा गति हेतु चाहती दाब
नदी को नीचे तल की चाह
किन्तु भौतिक नियमों से दूर
भावनाओं का अतुल प्रवाह

जिसे पाने में लगते वर्ष
बीत जाते कितने मधुमास
वही क्षण रुकते यदि पल चार
न हटता मन से निज विश्वास

हो गई उषा भी तमलिप्त
खो गया उसका भी अभिमान
क्षितिज के बीच बैठती कभी
पहनकर कुछ अरुणिम परिधान

इन्दु ने अपनी किरण समेट
समय से पूर्व किया प्रस्थान
साथ देने तारा-नक्षत्र
हो गये हैं सब अन्तर्ध्यान

इस अंधेरे में किसी के नाम का दीपक जलाये
ढूँढता बिछड़े स्वजन को भूल वो इस राह आये

भूल वो इस राह आये।
अमित (१६ नवम्बर १९८०)