Monday, October 7, 2013

नवगीत - कहते रहो कहानी बीर



कहते रहो कहानी बीर
अपनी आँधी-पानी बीर
तुम पहरे पर खड़े रहे
डूब गई रजधानी बीर

सारे चारण और कहार
बोल रहे हैं जै जै कार
महरानी ने ठोंकी पीठ
डटे रहे तुम राज कुमार
हैं दीवान सयाने जी
परखे और पहचाने जी
लेकिन इनकी उमर हुई
अब ख़ुद लो निगरानी बीर

सवा अरब से ज़्यादा भाल
इन्द्रप्रस्थ में किन्तु अकाल
गुदड़ी ही गुदड़ी निकली
स्याह पड़ गये सारे लाल
सबकी मिलीभगत लगती
अन्दर ही खिचड़ी पकती
दिखलाने को जनता में
नूरा कुश्ती ठानी बीर

जैसे ऊँट सवारी बीर
है खेती सरकारी बीर
नीलगाय ने कल चर ली
अब टिड्डों की बारी बीर
चाहे देश हुआ कंगाल
देशी-सेवक मालामाल
गन्ने पर कब्ज़ा जिसका
उसकी ही गुड़धानी बीर

-अमित

Tuesday, August 13, 2013

ग़ज़ल - दर्द ऐसा, बयाँ नहीं होता


दर्द ऐसा, बयाँ नहीं होता
जल रहा हूँ, धुआँ नहीं होता

अपने अख़्लाक़ सलामत रखिये
वैसे झगड़ा कहाँ नहीं होता

आसमानों से दोस्ती कर लो
फिर कोई आशियाँ नहीं होता

इश्क़ का दौर हम पे दौराँ था
ख़ुद को लेकिन ग़ुमाँ नहीं होता

कोई सब कुछ भुला दे मेरे लिये
ये तसव्वुर जवाँ नहीं होता

जब तलक वो क़रीब रहता है
कोई शिकवा ज़ुबाँ नहीं होता

पाँव से जब ज़मीं खिसकती है
हाथ में आसमाँ नहीं होता

-अमित

Thursday, July 11, 2013

इन्हीं मेघों से...



इन्ही मेंघों से निकलकर
चंचला की श्रृंखलायें
सुपथ आलोकित करेंगी
इन्हीं मेघों से झरेंगी
सुधा की रसमयी बूँदे
पुनः नवजीवन भरेंगी



इन्हीं मेघों से फिसलकर
रश्मियाँ नक्षत्रपति की
इन्द्रधनु मोहक रचेंगी
इन्ही मेंघों से हुआ प्रेरित
पवन, सन्देश देगा
नेह की नदियाँ बहेंगी



इन्हीं मेघों से धुलेंगे
सभी कच्चे रंग, पक्के
रंग की निधियाँ बचेंगी
इन्हीं मेघों से हुआ
भयभीत क्यों मन
अरे! ऋतु के चक्र का है 
यही सावन





छँटेंगे जब मेघ
होगी पूर्णिमा
फिर से शरद की।





-अमित
चित्र:  १ एवं ३ स्वयं तथा २ एवं ४ गूगल से साभार।

Sunday, July 7, 2013

गीत- निद्रित नहीं उनींदा सा हूँ


निद्रित  नहीं उनींदा सा हूँ
स्नात नहीं पर भीगा सा हूँ

जग की विषम व्यथायें कितनी
निज की पीर-कथायें कितनी
उलझी मनोदशा से अपनी
त्रस्त नहीं पर खीझा सा हूँ

यह विस्तृत आयोजन क्या है
मेरा यहाँ प्रयोजन क्या है
जीवन एक समस्या अनगिन
अशक्यता में तीखा सा हूँ।

विडम्बनाओं की है गठरी
यंत्र-प्रचालित लगती ठठरी
व्यर्थ क्रियाओं के संकुल में
नट-क्रीड़ा को जीता सा हूँ।

क्या कर लूँ, क्या हो जाऊँ मैं?
तुष्ट सभी को कर पाऊँ मैं
पँसगें मैं जीवन है अपना
वक्र जगत में सीधा सा हूँ।

आशाओं का पुनर्वास कर
घोर अंधेरे में प्रयास कर
बढ़ता हूँ टटोल कर पथ को
मन्द नहीं पर फीका सा हूँ।

-अमित

शब्दार्थ: स्नात - नहाया हुआ, पासंग - तुला को सन्तुलित करने वाला भार
चित्र: 123RF.com से साभार द्वारा गूगल।

Tuesday, April 16, 2013

होली पर धनाक्षरियाँ

दो घनाक्षरियाँ होली पर ( होली २०१३ में लिखी गई)

भंग की तरंग में अनंगनाथ झूम रहे, 
फागुनी बयार से जटा भी छितराई है।
गंग की तरंग भी उमंग में कुरंगिनी सी,
शैलजेश की जटाटवी को छोड़ धाई है।
थाप पे मृदंग की नटेश नृत्यमान हुये
दुंदुभी रतीश ने भी जोर से बजाई है।
रुद्र के निवास में वसन्त मूर्तिमान हुआ,
गा रहा बधाई होरी आई, होरी आई है।

साँस में पराग की सुगंध सी समाई हुई,
आँख में पलाश के हुलास की ललाई है।
सैन-सैन बात करे बैन-बैन घात करे,
चाल चपला सी भंगिमा में तरुनाई है।
रंग में नहा चुकी है बार कितनी ही किन्तु,
होड़ में सभी के लगे जैसे पगलाई है।
देख के किसी की ओर नैन हुये कोर-कोर,
गाल के गुलाल ने कहा कि होली आई है।


--अमित