Tuesday, March 31, 2009

ग़जल - ये रवायत आम है ... ...

ये रवायत आम है क्यों मुँह छिपाया कीजिये।
सीधे रस्ते बन्द हैं पीछे से आया कीजिये

यूँ यकीं करता नहीं कोई उमूमन आपका
फिर भी बहरेशौक़ कुछ वादे निभाया कीजिये।

इतने भोले भी न बनिये, कि लोग शक़ करने लगें,
आदतन गाहेबगाहे ग़ुल खिलाया कीजिये।

हैं बहुत अल्फाज़ भारी आपकी तक़रीर के,
वक़्त कम है मोहतरिम मतलब बताया कीजिये।

आपके अन्दाज़ की शोखी़ नजर का बाँकपन
और भी बढ़ जायेगा गर मुस्कराया कीजिये।

रुठना अच्छा है जब तक लोग संजीदा न हों
और मौका देखते ही मान जाया कीजिये।

हैं बहुत मजमून सुनने के सुनाने के ’अमित’
शर्त इतनी है कि बस तशरीफ लाया कीजिये।

- अमित

Thursday, March 26, 2009

ग़ज़ल -जो मेरे दिल में रहा एक निशानी बनकर।

जो मेरे दिल में रहा एक निशानी बनकर।
आज निकला है वही आँख का पानी बनकर।

जिसपे लिक्खे थे कभी हमने वफ़ा के किस्से,
रह गया वो भी सफ़ा एक कहानी बनकर।

एक खु़शबू सी अभी तक जेहन में जिन्दा है,
कभी शेफाली, कभी रात की रानी बनकर।

आग का दरिया भी आया है नजर पानी सा,
दौर मुझपर भी वो गुजरा है जवानी बनकर।

होशियारी भी वहाँ काम नहीं आई ’अमित’,
लूटने वाला चला आया था दानी बनकर।

- अमित

Sunday, March 22, 2009

गीत - पथ जीवन का पथरीला भी, सुरभित भी और सुरीला भी।

पथ जीवन का पथरीला भी, सुरभित भी और सुरीला भी।
गड्ढे, काँटे और ठोकर भी, है दृष्य कहीं चमकीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी ... ...

पथ के अवरोध हटाने में, कुछ हार गये कुछ जीत गये,
चलते - चलते दिन माह वर्ष सदियाँ बीतीं युग बीत गये,
फिर भी यह अगम पहेली सा रोमांचक और नशीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी ... ...

चलना उसको भी पड़ता है चाहे वह निपट अनाड़ी हो,
चक्कर वह भी खा जाता है चाहे वह कुशल खिलाड़ी हो,
संकरी हैं गलियाँ, मोड़ तीव्र, है पंथ कहीं रपटीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी ... ...

जादूगर, जादूगरी भूल जाते हैं इसके घेरे में,
बनते मिटते हैं विम्ब कई इस व्यापक घने अंधेरे में,
रंगों का अद्‍भुत मेल, कि कोई खेल, लगे सपनीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी ... ...

कौतूहल हैं मन में अनेक, उठते हैं संशय एक एक,
हम एक गाँठ खोलते कहीं, गुत्थियाँ उलझ जातीं अनेक,
निर्माता इसका कुशल बहुत, पर उतना ही शर्मीला भी।
पथ जीवन का पथरीला भी ... ...


- अमित

ग़ज़ल - जिन्दगी इक तलाश है, क्या है?

जिन्दगी इक तलाश है, क्या है?
दर्द इसका लिबास है क्या है?


फिर हवा ज़हर पी के आई क्या,
सारा आलम उदास है, क्या है?

एक सच के हजार चेहरें हैं,
अपना-अपना क़यास है, क्या है

जबकि दिल ही मुकाम है रब का,
इक जमीं फिर भी ख़ास है, क्या है

राम-ओ-रहमान की हिफ़ाजत में,
आदमी! बदहवास है, क्या है?

सुधर तो सकती है दुनियाँ, लेकिन
हाल, माज़ी का दास है, क्या है

मिटा रहा है जमाना इसे जाने कब से,
इक बला है कि प्यास है, क्या है?

गौर करता हूँ तो आती है हँसी,
ये जो सब आस पास है क्या है?
-अमित

Saturday, March 14, 2009

ग़ज़ल - जीते क्या हैं जी लेते हैं।

जीते क्या हैं, जी लेते हैं।
घूँट ज़हर के पी लेते हैं।

कहीं दर्द से आह न निकले,
होंठो को हम सी लेते हैं।

मैं मुजरिम हूँ जिस गुनाह का,
उसका लुत्फ़ सभी लेते हैं।

चुप हूँ तो नासमझ कहेंगे,
बोलूँ तो चुटकी लेते हैं।

‘पाला‘ पड़े कहीं पर, ’साहब’,
बिस्तर की गरमी लेते हैं।

वो बोलें मैं सुनूँ ध्यान से,
मैं बोलूँ, झपकी लेते हैं।

मुझे देख चुप हुये अचानक
अच्छा हम छुट्टी लेते हैं।

- अमित

Thursday, March 5, 2009

गीत - कैसी हवा चली उपवन में ... ....

कैसी हवा चली उपवन में सहसा कली-कली मुरझाई।
ईश्वर नें निश्वास किया या विषधर ने ले ली जमुहाई।
कैसी हवा चली उपवन में ... ....

साँझ ढले पनघट के रस्ते, मिली हुई क्या बात न जानें,
सिर का घड़ा गिरा धरती पर, हँसनें का आवेग न मानें,
हँसते-हँसते आँसू छलके, गालों का रक्तिम हो जाना,
मद्यसिक्त स्वर में धीरे से, ’धत्’ कहके आगे बढ़ जाना,
स्वप्न नहीं सच था परन्तु अब बात हो गई सुनी सुनाई।
कैसी हवा चली उपवन में ... ....

कुछ प्रसंग जीवन में आये, बन कर याद अतीत हो गये,
परिचय गाढ़ा हुआ किसी से आगे चल कर मीत हो गये,
मीत प्रीति के आलिंगन में वर्षा ऋतु का गीत हो गया,
पत्थर-पत्थर नाम हमारा गढ़वाली संगीत हो गया,
किन्तु दीप को लौ देकर फिर बाती उसने नहीं बढ़ाई।
कैसी हवा चली उपवन में ... ....

राह तके जीवन भर जिनका वे क्षण मिले उधार हो गये,
देहरी से आँगन तक में ही सावन के घन क्वार हो गये,
जब-जब नीड़ बनाये हमनें झंझा को उपहार हो गये,
मेरे काँच खिलौनें मन पर ऐसे विषम प्रहार हो गये,
भोर हुई अपनें ही घर में किन्तु साँझ हो गई पराई।
कैसी हवा चली उपवन में ... ....

- अमित

Tuesday, March 3, 2009

गीत-प्रीति अगर अवसर देती तो

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प्रीति अगर अवसर देती तो हमनें भाग्य संवारा होता।
कमल दलों का मोह न करते आज प्रभात हमारा होता।

नीर क्षीर दोनों मिल बैठे बहुत कठिन पहचान हो गई,
किन्तु नीर नें नाम खो दिया और क्षीर की शान खो गई,
काश! कभी प्रेमी हृदयों को विधि नें दिया सहारा होता।
प्रीति अगर ... ...

सिन्धु मिलन के लिये नदी नें क्या-क्या बाधायें तोड़ी थीं,
जलधि अंक में मिल जानें की क्या-क्या आशायें जोड़ी थीं,
नदी सिन्धु से प्रीति न करती क्यों उसका जल खारा होता।
प्रीति अगर ... ...

अनजानें अनुबन्ध हो गये, होने लगे पराये अपनें,
श्यामाम्बर पर रजत कल्पना खींचा करती निशिदिन सपने,
मीत तुम्हें जाना ही था तो पहले किया इशारा होता।
प्रीति अगर ... ...

-अमित

Monday, March 2, 2009

ग़ज़ल

आशिक यहाँ जुल्फ-ओ-लब-ओ-रुख़्सार बहुत हैं।
पाने को इक झलक ही तलबगार बहुत हैं।


रेशम से भी नाजुक हैं तेरी जुल्फ के रेशे,
कहते हैं मगर इनमें गिरिफ़्तार बहुत हैं।


इतने फ़राख़-दिल तो नहीं लोग यहाँ के,
क्या बात है के उसके मददगार बहुत हैं।


अब दिल में बस गये हो सितम चाहे जो करो,
वरना तो परी-रुख़ सरे संसार बहुत हैं।


किस - किस का भरे जाम कि जब एक है साक़ी,
प्यासे लब-ओ-सागर लिये मैख़्वार बहुत हैं।


पतझड़ था और धूप थी, माली था अकेला,
अब खु़शबू-ए-चमन है तो हक़दार बहुत हैं।


चुपके से देखते हैं दिखावा नहीं करते,
मासूम न कह देना वो हुशियार बहुत हैं।


अब रुक गई है आ के कहानी तेरी हाँ पर,
अर्मान मेरे दिल में मेरे यार बहुत हैं।


जलवानुमा है हुस्न जो पाकीज़: करदे दिल,
यूँ तो गुदाज़ हुस्न के बाजार बहुत हैं।


-अमित (दिसम्बर,’९१)
जुल्फ-ओ-लब-ओ-रुख़्सार = केश और ओष्ठ और कपोल (गाल)। फ़राख़-दिल = विशाल हृदय। लब-ओ-सागर = ओष्ठ और मदिरापात्र।