Sunday, March 20, 2011

यादें बचपन की


यायावर के फेरों जैसा है यह जीवन बारहमासी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी
 
नानी की मुस्कान पोपली, माँ की झुँझलाई सी बोली
भ‌इय्या का तीखा अनुशासन, औऽ बहनों की हँसी ठिठोली
दादी की पूजा-डलिया से, जब की थी प्रसाद की चोरी 
हुई पितामह के आगे सब, पापा जी की अकड़ हवा सी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी

पट्टी-कलम-दवातों के दिन, शाला के भोले सहपाठी
कानों में गुंजित है अब भी, ल‌उआ-लाठी चन्दन-काठी
झगड़े-कुट्टी-मिल्ली करना, गुरुजन के भय से चुप रहना
विद्या की कसमें खा लेना, बात-बात पर ज़रा-ज़रा सी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी

गरमी की लम्बी दोपहरें, बाहर जाने पर भी पहरे
सोने के निर्देश सख़्त पर, कहाँ नींद आँखों में ठहरे
ढली दोपहर आइस-पाइस, गिल्ली-डन्डा, लंगड़ी-बिच्छी
खेल-खेल में बीत गया दिन, आई संध्या लिये उबासी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी

पंख लगा कर कहाँ उड़ गये, मादक दिवस नशीली रातें
अम्बर-पट के ताराओं से, करते प्रिय-प्रियतम की बातें
स्वप्न-यथार्थ-बोध की उलझन, सुलझ न पाई जब यत्नों से
घर की छाँव छोड़ जाने कब, मन अनजाने हुआ प्रवासी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी

अमित

 

Thursday, March 17, 2011

गीत - मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ







मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ,
मैं अपलक रूप निहारूँ तुम मुस्काओ।

कर से कर खेल रहे हों,
अधरों से अधर जुड़े हों,
प्रश्वासों निश्वासों के 
झोंके उखड़े-उखड़े हों,
तुम शीश उठाकर धीमे से
हँस दो फिर रत हो जाओ।

मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ।

अधरों के आकर्षण से
गति हृदयों की मिल जाये,
बंधन इतना दृढ़ कर दो
बस प्राण निकल ही जाये,
तुम मुझे छिपा लो अंतर में
या फिर मुझमें छिप जाओ।

मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ।

हैं मिले आज जो क्षण वे
कल भी हों बहुत कठिन है,
वैसे भी मानव तन की
यह आयु मात्र दो दिन है,
फिर क्यों न आज इस क्षण को
पूरा पूरा जी जाओ।

मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ।

-अमित


Tuesday, March 1, 2011

नज़्म - एक बेनाम महबूब के नाम


चाहता हूँ कि तेरा रूप मेरी चाह में हो
तेरी हर साँस मेरी साँस की पनाह में हो
मेरे महबूब तेरा ख़ुद का जिस्म न हो
मेरे एहसास की मूरत कोई तिलिस्म न हो
ढूँढता फिरता हूँ हर सिम्त भुला के ख़ुद को
अपनी पोशीदा रिहाइश का पता दे मुझको
तुझसे मिलने की क़सम मैंने नहीं तोड़ी है
दिल ने उम्मीद बहरहाल नहीं छोड़ी है
तुझको पाने का अभी मुझको इख़्तियार नहीं
पर मेरा इश्क़ कोई रेत की दीवार नहीं
बावफ़ा अब भी हूँ पर मेरी कहानी है अलग
मेरी आँखें हैं अलग आँख का पानी है अलग
अब न मजबूरी-ओ-दूरी का गिला कर मुझसे
यूँ नहीं है तो तसव्वुर में मिला कर मुझसे
मेरे महबूब तू इक रोज़ इधर आयेगा
हाँ मगर वक़्त का दरिया तो गुज़र जायेगा
तब न शाख़ों पे कहीं गुल नही पत्ते होंगे
जा-ब-जा बिखरे हुये बर्फ़ के छत्ते होंगे
एक मनहूस सफ़ेदी यहाँ फैली होगी
चाँदनी अपनी ही परछाई से मैली होगी
तब भी जज़्बात पे हालात का पहरा होगा
वक़्त इक फीकी हँसी पर कहीं ठहरा होगा
पस्त-कदमों से तू चलता हुआ जब आयेगा
सर्द-तूफ़ान के झोकों से सिहर जायेगा
मेरे अल्फ़ाज़ में तब भी यही नरमी होगी
और मेरे कोट में अहसास की गरमी होगी

--अमित
शब्दार्थ:

तिलिस्म = रहस्य, हर सिम्त = सभी ओर या हर तरफ़,  पोशीदा रिहाइश = गुप्त निवास, बहरहाल = हर हाल में, इख़्तियार = अधिकार,बावफ़ा = बफ़ादार, गिला = शिकायत, तसव्वुर = ख़याल या ध्यान, जा-ब-जा = जगह - जगह, ज़ज़्बात = भवनायें, हालात = परिस्थितियाँ,पस्त-कदमों से = छोटे कदमों से, अल्फ़ाज़ में = शब्दों में, कोट = कोट।

(चित्र गूगल से साभार)