Thursday, May 28, 2009

ग़ज़ल - माननीय अत्यन्त हो गए

जिसने आगे बढ़ कर छीना वे सज्जन श्रीमन्त हो गये
और पंक्ति में खड़े-खडे़ हम अक्षरहीन हलन्त हो गये

इतने भोले नहीं कि दुनिया छले और हम पता न पायें
उदासीन हो गये जो देखा घने लुटेरे संत हो गये

जब मादक संगीत खनकते सिक्कों का पड़ गया सुनाई
सभी इन्द्रियाँ जगी अचानक सभी अंग जीवन्त हो गये (१९९२)

जिनकी महिमा संरक्षित है कितने थानो के ग्रन्थों में
लोकतन्त्र का सूत्र पकड़कर माननीय अत्यन्त हो गये

जब भी संकट पड़ा राष्ट्र पर आई बलिदानो की बारी
चोर-रास्ता पकड़ भागने को तैय्यार तुरन्त हो गये



अमित (२७/०५/०९)

Tuesday, May 19, 2009

ग़ज़ल - किसी को घर नहीं देता

किसी को महल देता है किसी को घर नहीं देता
विधाता! इन सवालों का कोई उत्तर नहीं देता

जिन्हे निद्रा नहीं आती पडे़ हैं नर्म गद्दों पर
जो थक चूर हैं श्रम से उन्हे बिस्तर नहीं देता

ये कैसा कर्म जिसका पीढ़ियाँ भुगतान करती हैं
ये क्या मज़हब है जो सबको सही अवसर नहीं देता

तुम्हारी सृष्टि के कितने सुमन भूखे औऽ प्यासे हैं
दयानिधि! इनके प्यालों को कभी क्यों भर नहीं देता

मुझे विश्वास पूरा है, तेरी ताकत औऽ हस्ती पर
तू क्यों इक बार सबको इक बराबर कर नहीं देता


अमित (१९/०५/०९)

Sunday, May 17, 2009

नवगीत - वेदना

बीती जाय जवानी रे
बीती जाय जवानी (दो बार)

गई कपोलों की चिकनाई
पडी़ आँख के नीचे छाई
नई लकीरें उभर रही हैं
सलवट हुई पेशानी रे
बाती जाय जवानी

जुगराफ़िया हो गया ढीला
मध्य भाग में उभरा टीला
जकड़ गई है कमर, पीठ भी
झुक कर हुई कमानी रे
बाती जाय जवानी

खत्म हुई चालों की चुस्ती
छाई रहती अक्सर सुस्ती
यादें ही हैं शेष कि अब तो
मस्ती! हुई कहानी रे
बाती जाय जवानी

अंकल कह कर गई यौवना
उठी हृदय में तीव्र वेदना
तभी याद आ गया अचानक
बिटिया हुई सयानी रे
बाती जाय जवानी

एकालाप सुना जब उसने
कहा देखते हो क्यों सपने
बीत गई, फिर भी कहते हो
बीती जाय जवानी रे
बाती जाय जवानी


अमित (१७/०५/०९)
जुगराफ़िया = भूगोल, पेशानी = मस्तक

Monday, May 11, 2009

मुक्तक - प्रकीर्ण

है उड़ानों में चपलता और दाना चोंच में। पड़ गई है देख कर चिड़िया मुझे संकोच में। घोसले के पास तक उड़ती है पर घुसती नहीं, मैं न उसका आसियाना देख लूँ इस सोच में। अपनी ताकत आजमाना चाहता है। दूसरों को भी दिखाना चाहता है। मैं किसी मंदिर का घंटा हो गया हूँ, हर कोई जिसको बजाना चाहता है। जीवन की स्थितियों के ही अनुकूल गये। इतना सा है याद, बहुत कुछ भूल गये। मैं बापू के साथ मजूरी पर निकला, वो अपना बस्ता लेकर स्कूल गये। हालिया साँचों बिल्कुल फिट नहीं हूँ। दोस्तों की महफिलों में हिट नहीं हूँ। रंग मुझको भी बदलना चाहिये कुछ, आदमी हूँ क्या करूँ गिरगिट नहीं हूँ। आइये कुछ दूर चलिये जिन्दगी के साथ में। चीथड़ों का इक मुहल्ला उगा है फुटपाथ में। गन्दगी में बिलबिलाते मर्द, बच्चे, औरतें, प्लास्टिक का इक तिरंगा भी है उनके हाथ में। अमित

Friday, May 8, 2009

ग़ज़ल - बहुत गुमनामों में शामिल एक नाम अपना भी है

बहुत गुमनामों में शामिल एक नाम अपना भी है
इल्मे-नाकामी में हासिल इक मक़ाम अपना भी है

गौर करने के लिये भी कुछ न कुछ मिल जायेगा
हाले-दिल पर हक़ के बातिल इक कलाम अपना भी है

मेहरबाँ भी हैं बहुत और कद्रदाँ भी हैं बहुत
हो कभी ज़र्रानवाज़ी इन्तेजाम अपना भी है

कब हुज़ूरे-वक़्त को फ़ुरसत मिलेगी देखिये
मुश्त-ए-दरबान तक पहुँचा सलाम अपना भी है

चलिये मैं भी साथ चलता हूँ सफ़र कट जायेगा
आप की तक़रीर के पहले पयाम अपना भी है

इक परिन्दे की तरह बस आबो-दाने की तलाश
जिन्दगी का यह तरीका सुबहो-शाम अपना भी है

घर की चौखट तक मेरा ही हुक़्म चलता है ’अमित’
मिल्कीयत छोटी सही लेकिन निज़ाम अपना भी है


अमित
इल्मे-नाकामी = असफलता की विद्या, मक़ाम = स्थान, हक़ के बातिल = सच या झूठ, कलाम = वाणी या वचन, मेहरबाँ = दयालु, क़द्रदाँ = गुणग्राहक, ज़र्रानवाज़ी = दीनदयालुता, मुश्त-ए-दरबान = दरबान की मुट्ठी, तक़रीर = भाषण या उपदेश, पयाम = संदेश, आबो-दाना = अन्न-जल, मिल्कीयत = जायेदाद, निज़ाम = शासनव्यवस्था या प्रबन्धतन्त्र ।

Wednesday, May 6, 2009

ग़ज़ल - बतर्ज-ए-मीर

अक्सर ही उपदेश करे है, जाने क्या - क्या बोले है।
पहले ’अमित’ को देखा होता अब तो बहुत मुहँ खोले है।

वो बेफ़िक्री, वो अलमस्ती, गुजरे दिन के किस्से हैं,
बाजारों की रक़्क़ासा, अब सबकी जेब टटोले है।

जम्हूरी निज़ाम दुनियाँ में इन्क़िलाब लाया लेकिन,
ये डाकू को और फ़कीर को एक तराजू तोले है।

उसका मक़तब, उसका ईमाँ, उसका मज़हब कोई नहीं,
जो भी प्रेम की भाषा बोले, साथ उसी के हो ले है।

बियाबान सी लगती दुनिया हर रौनक काग़ज़ का फूल
कोलाहल की इस नगरी में चैन कहाँ जो सो ले है


अमित (06/05/09)

Monday, May 4, 2009

ग़ज़ल - अपनी - अपनी सलीब ढोता है

अपनी - अपनी सलीब ढोता है
आदमी कब किसी का होता है

है ख़ुदाई-निज़ाम दुनियाँ का
काटता है वही जो बोता है

जाने वाले सुकून से होंगे
क्यों नयन व्यर्थ में भिगोता है

खेल दिलचस्प औ तिलिस्मी है
कोई हँसता है कोई रोता है

सब यहीं छोड़ के जाने वाला
झूठ पाता है झूठ खोता है

मैं भी तूफाँ का हौसला देखूँ
वो डुबो ले अगर डुबोता है

हुआ जबसे मुरीदे-यार ’अमित’
रात जगता है दिन में सोता है

अमित(३०-०४-०९)

Friday, May 1, 2009

ग़ज़ल - रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं।

रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं।
ज़ीस्त की दुश्वारियाँ बढ़ती गईं।

पेशकदमी वो करे मैं क्यों बढ़ूँ,
इस अहम में दूरियाँ बढ़ती गईं।

आप भी तो खुश नहीं, मैं भी उदास
किसलिये फिर तल्ख़ियाँ बढ़ती गईं।

भूख ले आई शहर में गाँव को,
झुग्गियों पर झुग्गियाँ बढ़ती गईं।

मुस्कराहट सभ्यता का इक फ़रेब,
दिन-ब-दिन ऐय्यारियाँ बढ़ती गईं।

आग से महफ़ूज़ रह पायेगा कौन,
यूँ ही गर चिंगारियाँ बढ़ती गईं।

अम्न के संवाद के साये तले
जंग की तैय्यारियाँ बढ़ती गईं।

अमित (२६ अप्रैल, ०९)
ज़ीस्त = जीवन, पेशकदमी = पहल, ऐय्यारियाँ = छल, चालाकियाँ, तल्ख़ियाँ = कटुतायें
दुश्वारियाँ = कठिनाइयाँ