Saturday, November 14, 2009

ग़ज़ल - मुझको इंकार आ गया शायद

एक पुरानी ग़ज़ल

उनको अब प्यार आ गया शायद
मुझको इंकार आ गया शायद

एक बेचैन सी ख़मोशी है
बक्ते-बीमार आ गया शायद

कुछ चहल-पलह है ख़ाकी-ख़ाकी
कोई त्योहार आ गया शायद

होश गु़म और लुटे-लुटे चेहरे
कोई बाज़ार आ गया शायद

खून की बू सी अभी आई है
अपना अख़बार आ गया शायद


अमित (१९९४)
Mob:

Wednesday, November 11, 2009

कुछ सामयिक दोहे

युद्ध रोकने के लिये, युद्ध हुआ अनिवार्य।
वीर भोगते हैं धरा, क्यों सोये हो  आर्य॥

जन की, धन की, देश की, करे सुरक्षा कौन।
निर्णायक  संवाद में, रह  जाते  हो मौन॥

विषधर को शोभे क्षमा, कवि कह गया प्रवीन।
दन्तहीन, विषहीन  पर, शासन  करती बीन॥

जब अपना  घर हो  भरा, सब देते  सहयोग।
मरुथल प्यासा ही रहे, जलनिधि को जलयोग॥


प्रभाष जोशी जी के निधन पर

निविड़ कालिमा छा गयी, ज्यों भादौं की रात।
सुख का घट रीता हुआ, दुख की भरी  परात॥


अमित


Mob:

Sunday, November 1, 2009

नवगीत - चलो लौटें कविता की ओर


छोड़ कर,
व्यस्त क्रमों की डोर
चलो लौटें कविता की ओर

कसमसाहट है मन बेचैन
चतुर्दिक विम्ब खोजते नैन
बुलाये देकर कोई सैन
सुनाये स्नेहसिक्त कुछ बैन
मौन हो सुनूँ स्वास के छंद
भूलकर जग में बिखरा शोर
चलो लौटें कविता की ओर

हुआ क्या अब तक व्यर्थ व्यतीत
अर्थ संचय में लगा अतीत
देह के सुविधाओं की जीत
मन कहीं और कहीं मनमीत
अरे! किसके हित किया प्रबन्ध
हृदय है या पाषाण कठोर?
चलो लौटें कविता की ओर

नियति के कुछ अलिखित अध्याय
स्वयं लिख दें यदि करें उपाय
हृदय का वह कपाट खुल जाय
जहाँ सोई कविता निरुपाय
सृष्टि-क्रम का आदिम आनंद
क्षितिज-घूँघट सरकाती भोर
चलो लौटें कैविता की ओर

अमित

Mob: