Thursday, December 31, 2009

नव वर्ष मंगलमय हो!

आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक मंगलकामनायें!
रचें ज्योति के पत्र पर सर्जना के,  नये विम्ब फिर से नई लेखनी  से।
नये गीत गायें  नई  कल्पना के,  नई भंगिमा से  नई  रागिनी   से।
उड़ें रंग उल्लास के हर दिशा  में, नई  भोर  की  कुंकुमी  रोशनी  से।
नये वर्ष का आगमन हो  कि जैसे, नखत कोई उतरा हो मन्दाकिनी से।
अमित

Friday, December 25, 2009

प्रसाद

जलती हैं हमारी हड्डियाँ
समिधा बन कर
हमारा ही श्रम बनता है
हविष्य
और प्रज्ज्वलित करते हैं उसे
हमारे ही श्रम-बिन्दु
घृत बन कर
पड़ता है, हमारे समर्पण का तुलसीदल
भोग की हर वस्तु में
लेकिन!
प्रसाद की कतार में
होते हैं सबसे बाद में
पहुँचते-पहुँचते जहाँ तक
हो जाता है रिक्त
थाल प्रसाद का।

अमित

Thursday, December 17, 2009

नज़्म - मेरी गुर्बत को मत नापो

मेरी गु़र्बत को मत नापो
मुझे गु़र्बत से मत नापो
मैं जीवन की सही पहचान रहना चाहता हूँ
मेरी सनदों को मत नापो
मुझे सनदों से मत नापो
मैं अपने अह्द में ईमान रहना चाहता हूँ
मेरे ओहदे को मत नापो
मुझे ओहदे से मत नापो
मैं अदना सा बस इक इंसान रहना चाहता हूँ
मेरी शोहरत को मत नापो
मुझे शोहरत से मत नापो
मैं मुश्किल में भी इक मुस्कान रहना चाहता हूँ
मेरी ग़फ़्लत को मत नापो
मुझे ग़फ़्लत से मत नापो
मैं सब कुछ जान कर अंजान रहना चाहता हूँ

अगर तुम नाप सकते हो
तो मेरी आशिकी नापो
जुनूने-ज़िन्दगी नापो
जुर‍अते-शायरी नापो

मेरी खुद्दार नज़रों में
कभी आसूदगी नापो
मईशत की तराजू पर
कभी नेकी-बदी नापो
अगर तुम नाप सकते हो

मिज़ाजे-अफ़सरी नापो
ज़मीरे-कमतरी नापो
हुकूमत के वज़ीरों की
कभी दानिशवरी नापो

अंधेरों के भवँर नापो
उजालो के कहर नापो
नफ़स में फैलता जाता
सियासत का ज़हर नापो
अगर तुम नाप सकते हो!

अगर यह काम मुश्किल है
तो मुझको यूँ ही रहने दो
मैं अपना वैद खुद ही हूँ
मुझे उपचार करने दो

मैं जीवन की सही पहचान रहना चाहता हूँ
मैं अपने अहद में ईमान रहना चाहता हूँ
मैं अदना सा बस इक इंसान रहना चाहता हूँ
मैं मुश्किल में भी इक मुस्कान रहना चाहता हूँ
मैं सब कुछ जान कर अंजान रहना चाहता हूँ


'अमित'
शब्दार्थ:
गु़र्बत = गरीबी, कंगाली ; सनदों = प्रमाणों (प्रमाणपत्रों)
अह्द = प्रतिज्ञा, वचन; ग़फ़्लत = असावधानी, भूल
खुद्दार = स्वाभिमानी; आसूदगी = संतोष, तृप्ति;
मईशत = जीविका; दानिशवरी = बुद्धिमत्ता;
नफ़स = साँस; वैद = वैद्य

Sunday, December 13, 2009

मुक्तक

रुत बदलने से कुछ नहीं होगा
रात ढलने से कुछ नहीं होगा
आइने में खरोंच है साथी
आँख मलने से कुछ नहीं होगा
अमित

Thursday, December 10, 2009

ग़ज़ल - लिहाफ़ों की सिलाई खोलता है

लिहाफ़ों की सिलाई खोलता है
कोई दीवाना है सच बोलता है।

बेचता है सड़क पर बाँसुरी जो
हवा में कुछ तराने घोलता है।

वो ख़ुद निकला नहीं तपती सड़क पर
पेट पाँवों पे चढ़ कर डोलता है।

पेश आना अदब से पास उसके
वो बन्दों को नज़र से तोलता है।

याद रह जाय गर कोई सुखन तो
उसमें सचमुच कोई अनमोलता है।


-- अमित

Monday, December 7, 2009

अपौरुषेय

शब्द स्वयं चुनते हैं, अपनी राह
बैसाखियों पर टिके शब्द
हो जाते हैं धराशायी
बैसाखियों के टूटते ही|
बहुत पाले और संवारे हुये शब्द भी
गल जाते हैं, समय की आंच में
जीवित रह जाते हैं वे शब्द
जिन्होने
छुआ हो जीवन को
बहुत समीप से
इन्ही में से कुछ
हो जाते हैं
शब्दकार से स्वतन्त्र
और उनसे भी बड़े
अतिक्रमण करके काल का
यही कालजयी
हो जाते हैं
अपौरुषेय!

-अमित  

Friday, December 4, 2009

नज़्म - आइये इक पहर यहीं बैठें


आइये इक पहर यहीं बैठें
साथ सूरज के ढलें सुरमई अंधेरों में
सुने बेचैन परिन्दों की चहक
लौट कर आते हुये फिर उन्ही बसेरों में

आशियाँ सबको हसीं लगता है अपना, लेकिन
बस मुकद्‌दर में सभी के मकाँ नहीं होता
और हैरत है कि मस्रूफ़ियाते-दीगर में
इस कमी का मुझे कोई गुमाँ नहीं होता

उम्र कटती ही चली जाती है
इन दरख़्तों के तले, बेंच पे, फुटपाथों पर
कितने ही पेट टिके हैं देखें
दौड़ती पैर की जोड़ी पे और हाथों पर

रोज़ सूरज को जगाता हूँ सवेरे उठकर
रात तारों के दिये ढूँढ कर जलाता हूँ
वक़्ते-रुख़्सत की वो आँखें उभर सी आती हैं
जाने कितने ही ख़यालों में डूब जाता हूँ

ज़िन्दगी छोटी है, तवील भी है
मस‍अला भी है, इक दलील भी है
छोड़िये ये फ़िज़ूल की बहसें
आइये इक पहर यहीं बैठें


अमित
शब्दार्थ:
मसरूफ़ियाते-दीगर = अन्य व्यस्तताओं में
वक़्ते-रुख़्सत = विदा के समय
तवील = लम्बी
मस‍अला = समस्या
दलील = युक्ति


--
रचनाधर्मिता (http://amitabhald.blogspot.com/)
M

Saturday, November 14, 2009

ग़ज़ल - मुझको इंकार आ गया शायद

एक पुरानी ग़ज़ल

उनको अब प्यार आ गया शायद
मुझको इंकार आ गया शायद

एक बेचैन सी ख़मोशी है
बक्ते-बीमार आ गया शायद

कुछ चहल-पलह है ख़ाकी-ख़ाकी
कोई त्योहार आ गया शायद

होश गु़म और लुटे-लुटे चेहरे
कोई बाज़ार आ गया शायद

खून की बू सी अभी आई है
अपना अख़बार आ गया शायद


अमित (१९९४)
Mob:

Wednesday, November 11, 2009

कुछ सामयिक दोहे

युद्ध रोकने के लिये, युद्ध हुआ अनिवार्य।
वीर भोगते हैं धरा, क्यों सोये हो  आर्य॥

जन की, धन की, देश की, करे सुरक्षा कौन।
निर्णायक  संवाद में, रह  जाते  हो मौन॥

विषधर को शोभे क्षमा, कवि कह गया प्रवीन।
दन्तहीन, विषहीन  पर, शासन  करती बीन॥

जब अपना  घर हो  भरा, सब देते  सहयोग।
मरुथल प्यासा ही रहे, जलनिधि को जलयोग॥


प्रभाष जोशी जी के निधन पर

निविड़ कालिमा छा गयी, ज्यों भादौं की रात।
सुख का घट रीता हुआ, दुख की भरी  परात॥


अमित


Mob:

Sunday, November 1, 2009

नवगीत - चलो लौटें कविता की ओर


छोड़ कर,
व्यस्त क्रमों की डोर
चलो लौटें कविता की ओर

कसमसाहट है मन बेचैन
चतुर्दिक विम्ब खोजते नैन
बुलाये देकर कोई सैन
सुनाये स्नेहसिक्त कुछ बैन
मौन हो सुनूँ स्वास के छंद
भूलकर जग में बिखरा शोर
चलो लौटें कविता की ओर

हुआ क्या अब तक व्यर्थ व्यतीत
अर्थ संचय में लगा अतीत
देह के सुविधाओं की जीत
मन कहीं और कहीं मनमीत
अरे! किसके हित किया प्रबन्ध
हृदय है या पाषाण कठोर?
चलो लौटें कविता की ओर

नियति के कुछ अलिखित अध्याय
स्वयं लिख दें यदि करें उपाय
हृदय का वह कपाट खुल जाय
जहाँ सोई कविता निरुपाय
सृष्टि-क्रम का आदिम आनंद
क्षितिज-घूँघट सरकाती भोर
चलो लौटें कैविता की ओर

अमित

Mob:

Tuesday, October 6, 2009

नवगीत - रिश्तों का व्याकरण


(यह नवगीत, नवगीत की पाठशाला के लिए लिखा था| 
इसे आप अनुभूति में भी देख सकते हैं|)


अनुकरण की
होड़ में अन्तःकरण चिकना घड़ा है
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।
 

दब गया है
कैरियर के बोझ से मासूम बचपन
अर्थ-वैभव हो गया है सफलता का सहज मापन
सफलता के
शीर्ष पर जिसके पदों का हुआ वन्दन
देखिये किस-किस की गर्दन को
दबा कर वो खड़ा है।
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

सीरियल के
नाटकों में समय अनुबंधित हुआ है
परिजनो से वार्ता-परिहास क्रम
खंडित हुआ है
है कुटिल
तलवार अंतर्जाल का माया जगत भी
प्रगति है यह या कि फिर विध्वंस
का खतरा बड़ा है।
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

नग्नता
नवसंस्कृति की भूमि में पहला चरण है
व्यक्तिगत स्वच्छ्न्दता ही प्रगतिधर्मी
आचरण है
नई संस्कृति के नये
अवदान भी दिखने लगे अब
आदमी अपनी हवस की दलदलों
में जा गड़ा है
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

--अमित

मेरी रचनाये (http://amitabhald.blogspot.com)

Sunday, October 4, 2009

ग़ज़ल - यूँ चम्पई रंगत प सिंदूरी निखार है

एक रवायती (पारंपरिक) ग़ज़ल प्रस्तुत है|


यूँ चम्पई रंगत प सिंदूरी निखार है
इंसानी पैरहन में गुले-हरसिंगार है।

धानी से दुपट्टे में बसंती सी हलचलें
मौज़े-ख़िरामे-हुस्न कि फ़स्ले-बहार है।

गुजरा है कारवाने-क़ायनात इधर से
ये कहकशाँ की धुन्ध भी मिस्ले-गुबार है।

जिस पर भी पड़ गयी है निगहे-नाज़े-सरसरी
इंसाँ नियाजे-हुस्न का उम्मीदवार है।

आतिश जले कहीं भी पहुँचते हैं फ़ित्रतन
दीवानगी का अहद भी परवानावार है।

क्यूँ हुस्न प लगती रही पाक़ीज़गी की शर्त
पूछा कभी कि इश्क़ भी परहेजगार है।

इतने क़रीब से भी न गुजरे कोई 'अमित'
गो आग बुझ भी जाय प रहता शरार है।


अमित
शब्दार्थ:
पैरहन = वस्त्र, मौज़े-ख़िरामे-हुस्न = सौन्दर्य के चाल की तरंग, फ़स्ले-बहार= बसन्त
निगहे-नाज़े-सरसरी = मान से उक्त सरसरी निगाह,कहकशाँ= आकाश गंगा, मिस्लेगुबार = गुबार की तरह
नियाजे-हुस्न = हुस्न की कृपा, फ़ित्रतन = स्वाभाविक रूप से, अहद = प्रतिज्ञा, परवानावार = परवानो की तरह
पाक़ीज़गी = पवित्रता, परहेजगार= संयमी, शरार = चिंगारी।

Tuesday, September 22, 2009

ग़ज़ल - हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते
चिराग़ रखते हैं, शम्सो-क़मर नहीं रखते।

हमने रूहों पे जो दौलत की जकड़ देखी है
डर के मारे ये बला अपने घर नहीं रखते।

है नहीं कुछ भी प ग़ैरत प आँच आये तो
सबने देखा है के कोई कसर नहीं रखते।

इल्म रखते हैं कि इंसान को पहचान सकें
उनकी जेबों को भी नापें, हुनर नहीं रखते।

बराहे-रास्त बताते हैं इरादा अपना
मीठे लफ़्जों में छुपा कर ज़हर नहीं रखते।

हम पहर-पहर बिताते हैं ज़िन्दगी अपनी
अगली पीढ़ी के लिये मालो-ज़र नहीं रखते।

दिल में आये जो उसे कर गुज़रते हैं अक्सर
फ़िज़ूल बातों के अगरो-मगर नहीं रखते।

गो कि आकाश में उड़ते हैं परिंदे लेकिन
वो भी ताउम्र हवा में बसर नहीं रखते।

अपने कन्धों पे ही ढोते हैं ज़िन्दगी अपनी
किसी के शाने पे घबरा के सर नहीं रखते।

कुछ ज़रूरी गुनाह होते हैं हमसे भी कभी
पर उसे शर्म से हम ढाँक कर नहीं रखते।

हर पड़ोसी की ख़बर रखते हैं कोशिश करके
रूसो-अमरीका की कोई ख़बर नहीं रखते।

हाँ ख़ुदा रखते हैं, करते हैं बन्दगी पैहम
मकीने-दिल के लिये और घर नहीं रखते।

घर फ़िराक़ और निराला का, है अक़बर का दियार
'अमित' के शेर क्या कोई असर नहीं रखते।


- अमित

शब्दार्थः
शम्सो-क़मर = सूरज और चन्द्रमा, बराहे-रास्त = सीधे - सीधे, शाने = कन्धे, पैहम = लगातार, मकीने-दिल = दिल का निवासी।

Wednesday, September 16, 2009

गीत - तुम मुझको उद्दीपन दे दो ...

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तुम मुझको उद्दीपन दे दो गीतों का उपवन दे दूँगा
थोड़ा सा अपनापन दे दो मैं सारा जीवन दे दूँगा।

मेरा तुमको कुछ दे देना जगप्रचिलित व्यापार नहीं है
और अपेक्षा रखना तुमसे बदले का व्यवहार नहीं है
जैसे यदि आराधन देदो श्रद्धासिक्त सुमन दे दूँगा।
तुम मुझको उद्दीपन दे दो ... ... ...

दुस्साहस भी कर सकता हूँ यदि तुम सम्बल देती जाओ
श्रम-सीकर से भय ही कैसा बस तुम आँचल झलती जाओ
सच कह दूँ संकेत मात्र पर तारों भरा गगन दे दूँगा।
तुम मुझको उद्दीपन दे दो ... ... ...

कमल कपूर भाँति उर मेरा कोमल और अग्नि शंकित है
जिस पर काला सा अतीत और धुंधला सा भविष्य अंकित है
यदि इसका अभिसार कर सको युग-प्रवाह नूतन दे दूँगा।
तुम मुझको उद्दीपन दे दो ... ... ...

-अमित
(१९८५-८६)
--
मेरी रचनाये (http://amitabhald.blogspot.com)

Saturday, September 5, 2009

दस हाइकु

()
अप्रासंगिक
पुरानी परिपाटी
जीवन साथी

()
पीढ़ी-अन्तर
मैकडॉनल पिज़्ज़ा
चुपड़ी रोटी

()
अपराधी हैं?
सुरक्षित विहार
ये कारागार

()
धोबी की हत्या
घर का मालिक है
धोबी का कुत्ता

()
एक शिकारी
दफ़्तर सरकारी
किसकी बारी?

()
राष्ट्रीय पक्षी
देखो! राष्ट्रीय पशु
क्या है आदमी?

()
पुलिस आई
कुत्तों ने जेबें सूँघी
पुलिस गई

()
चैनल सन्त
चमत्कार अनन्त
दुखी का अन्त

()
गुरू घन्टाल
छन रहा है माल
चेला बेहाल

(१०)
खोमचेवाला
लगी है टकटकी
गर्ल्स हॉस्टल

Tuesday, September 1, 2009

कविता - वास्तविकता

ड्राइंग रूम में अपना एक चित्र लगाया है
जो मुझे आकर्षक दिखाता है
पर मेरे जैसा नहीं दिखता
एक तख्ती दरवाजे पर
उपाधियां दर्शाती है, मेरी
जिन्हें मैं जानता हूँ कि कागजी हैं
और ओढे रहता हूँ एक गंभीरता
कि लोग बहुत नजदीक न आ जाँय
जान लें मेरी वास्तविकता
लेकिन कभी-कभी सोचता हूँ
कि देंखूं
इन सबके बिना
मैं कैसा लगता हूँ|

Saturday, August 15, 2009

हिन्दी ग़ज़ल - अच्छाई से डर लगता है।

सबको तुम अच्छा कहते हो, कानो को प्रियकर लगता है
अच्छे हो तुम किन्तु तुम्हारी अच्छाई से डर लगता है।

सुन्दर स्निग्ध सुनहरे मुख पर पाटल से अधरों के नीचे
वह काला सा बिन्दु काम का जैसे हस्ताक्षर लगता है।

स्थितियाँ परिभाषित करती हैं मानव के सारे गुण-अवगुण
मकर राशि का मन्द सूर्य ही वृष में बहुत प्रखर लगता है।

ज्ञानी विज्ञानी महान विद्वज्जन जिसमें कवि अनुरागी
वाणी के उस राजमहल में कभी-कभी अवसर लगता है।

विरह-तप्त व्याकुल अन्तर को जब हो प्रियतम-मिलन-प्रतीक्षा,
हर कम्पन सन्देश प्रेम का हर पतंग मधुकर लगता है।

अमित

Tuesday, August 4, 2009

नवगीत - सुख-दुख आना-जाना।

सुख-दुख आना-जाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

सुख की है कल्पना पुरानी
स्वर्गलोक की कथा कहानी
सत्य-झूठ कुछ भी हो लेकिन
है मन को भरमाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

सुख के साधन बहुत जुटाये
सुख को किन्तु खरीद न पाये
थैली लेकर फिरे ढूँढते
सुख किस हाट बिकाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

आस-डोर से बँधी सवारी
सुख-दुख खीचें बारी-बारी
कहे कबीरा दो पाटन में
सारा जगत पिसाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

वनवासी जीवन में सुख था
शशिमुख के आगे रवि मुख था
किन्तु स्वर्ण-मृग की इच्छा में
लंका हुआ ठिकाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

दुखमय जगत काल की फाँसी
देख कुमार हुआ सन्यासी
शोध किया तो पाया तृष्णा-
पीछे जग बौराना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

जब-जब किया सुखों का लेखा
सुख को पता बदलते देखा
किन्तु सदा ही इसके पीछे
दुख पाया लिपटाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

जीवन की अनुभूति इसी में
द्वेष इसी में प्रीति इसी में
इसी खाद-पानी पर पलकर
जीवन कुसुम फुलाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

Tuesday, July 28, 2009

हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन। तुलसी जयंती पर (२८-०७-०९)

हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

गलित रूढियों के दल-दल में
डूबा था जग सारा
मानस का उपहार ललित देकर
तब हमे उबारा
लोकनीति, मर्यादा रक्षण
काटे जो भवबन्धन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

विनययुक्त दी विनयपत्रिका
गीतावलि प्रभुलीला
पूर्वपीठिका मानस की ज्यौं
कवितावली सुशीला
स्वयं तिलक लगवाने आये थे
तुमसे रघुनन्दन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

रामचरित लीला का तुमने
प्रचलन किया जगत में
शैव और वैष्णव भक्तों को
किया एक पंगत में
उपकृत आज समाज तुम्हारा
करता है अभिनन्दन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

गूढ़ दार्शनिक तत्वों को
जब सरल शब्द में ढाला
इक भदेस भाषा ने पाया
अमृतरस का प्याला
घूम रहा है धर्मध्वजा लेकर
अब तक वह स्यंदन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

माता-पिता विहीन, तिरष्कृत
बाल्यकाल कठिनाई
गुरु का कृपा प्रसाद, ज्ञान के
साथ काव्य निपुनाई
जिसे किया स्पर्श
सुवासित हुआ कि जैसे चंदन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

कल बादल को कस कर डाँटा

रे कंजूस भला वर्षा में है तेरा क्या घाटा
कल बादल को कस कर डाँटा

आज सवरे इधर-उधर कुछ धुँधले बादल आये
कुछ फुहार के जैसी छोटी-छोटी बूँदे लाये
मैंने कहा कि निकले हो क्या करने सैर सपाटा?
उनको मैंने फिर से डाँटा

बाद दोपहर घिर आये कुछ बादल काले-काले
गरजे-तड़के बहुत देर पर खुले न उनके ताले
हुआ क्रोध से लाल खींच कर मारा एक झपाटा
अबकी बड़ी जोर से डाँटा

और शाम होते-होते फिर आई बुद्धि ठिकाने
सचमुच भीग गया मैं नभ पर लगे मेघ घहराने
आँख खुली, पत्नी गुस्से में, क्यों मारा था चांटा?
अब मैं खींच गया सन्नाटा

आँखें मल कर वस्तुस्थिति को समझा और बताया
अनावृष्टि ने मन पर मेरे था अधिकार जमाया
किसी तरह समझाकर मैंने पत्नी का भ्रम काटा
उनका ज्वार हुआ तब भाटा
कल बादल को कस कर डाँटा।

Saturday, July 11, 2009

ग़ज़ल - फिक्र आदत में ढल गई होगी।

फ़िक्र आदत में ढल गई होगी अब तबीयत सम्हल गई होगी गो हवादिस नहीं रुके होंगे उनकी सूरत बदल गई होगी जान कर सच नहीं कहा मैंने बात मुँह से निकल गई होगी मैं कहाँ उस गली में जाता हूँ है तमन्ना मचल गई होगी जिसमें किस्मत बुलन्द होनी थी वो घड़ी फिर से टल गई होगी खा़के-माजी की दबी चिंगारी उसकी आहट से जल गई होगी खता मुआफ़ के मुश्ताक़ नजर बेइरादा फ़िसल गई होगी मुन्तजिर मुझसे अधिक थी आँखें बूँद बरबस निकल गई होगी नाम गुम हो गये हैं खत से 'अमित' उनको स्याही निगल गई होगी। -अमित मुश्ताक़ = उत्सुक, मुन्तजिर= प्रतीक्षारत, हवादिस= हादसा का बहुवचन Mob:

Saturday, July 4, 2009

कविता कोश की तीसरी वर्षगाँठ पर हमारी बधाई (दिनांक ०५जुलाई)

व्याप्त है विपुल हर्ष कविता कोश ने पूर्ण किये तीन वर्ष कविता का यह महासागर बनने को उद्यत है हिन्दी काव्य का विश्वकोश। वह दिन दिखता है मुझे हस्तामलक समान जब कविता कोश में होगा काव्य की हर जिज्ञासा का समाधान। बधाई! उन सभी को जिनके प्रयत्नो का सुफल हुआ मूर्तिमान। उनको है नमन, उनकी वन्दना उनका सारस्वत सम्मान बहुत कुछ किया आपने पर बहुत कुछ अब भी है शेष जिसके लिये हम सभी की शुभकामानायें हैं अशेष इस महायज्ञ में हम भी सहभागी हैं समिधा और हविस्य लेकर जितनी जिसकी है सामर्थ्य सर्वस्व लेकर हमारी मंगल कामनायें! एक दिन हम कविता कोश को हिन्दी-काव्य का विश्वकोश बनायें सादर अमित Mob:

Saturday, June 27, 2009

नवगीत - गर्मी के दिन।

भोर जल्द भाग गई लू के डर से
साँझ भी निकली है बहुत देर में घर से
पछुँआ के झोकों से बरसती अगिन
गर्मी के दिन।
पशु-पक्षी पेड़-पुष्प सब हैं बेहाल
सूरज ने बना दिया सबको कंकाल
माँ चिड़िया लाती पर दाने बिन-बिन
गर्मी के दिन।
हैण्डपम्प पर कौव्वा ठोंक रहा टोंट
कुत्ता भी नमी देख गया वहीं लोट
दुपहरिया बीत रही करके छिन-छिन
गर्मी के दिन।
बच्चों की छुट्टी है नानी घर तंग
ऊधम दिन भर, चलती आपस की जंग
दिन में दो पल सोना हो गया कठिन
गर्मी के दिन।
शादी बारातों का न्योता है रोज
कहीं बहूभोज हुआ कहीं प्रीतिभोज
पेट-जेब दोनों के आये दुर्दिन
गर्मी के दिन।
गर्मी के दिन।


-अमित

Friday, June 26, 2009

ग़ज़ल तरही - साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है

इल्तिजा उसकी मुहब्बत में सनी होती है
साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है

यूँ कमानी की तरह भौंह तनी होती है
नज़र पड़ते ही कहीं आगजनी होती है

अपना ही अक्स नज़र आती है अक्सर मुझको
वो हर इक चीज जो मिट्टी की बनी होती है

सौदा-ए-इश्क़ का दस्तूर यही है शायद
माल लुट जाये है तब आमदनी होती है

मैं पयाले को कई बार लबों तक लाया
क्या करूँ जाम की क़िस्मत से ठनी होती है

इतने अरमानो की गठरी लिये फिरते हो ’अमित’
उम्र इंसान की आख़िर कितनी होती है


- अमित

Wednesday, June 17, 2009

गीत - स्मृति के वे चिह्न


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स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं, कुछ उजले कुछ धुंधले-धुंधले।
जीवन के बीते क्षण भी अब, कुछ लगते है बदले-बदले।

जीवन की तो अबाध गति है, है इसमें अर्द्धविराम कहाँ
हारा और थका निरीह जीव, ले सके तनिक विश्राम जहाँ
लगता है पूर्ण विराम किन्तु, शाश्वत गति है वो आत्मा की
ज्यों लहर उठी और शान्त हुई, हम आज चले कुछ चल निकले।
स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं ... ...

छिपते भोरहरी तारे का, सन्ध्या में दीप सहारे का
फिर चित्र खींच लाया है मन, सरिता के शान्त किनारे का
थी मनश्क्षितिज में डूब रही, आवेगोत्पीड़ित उर नौका
मोहक आँखों का जाल लिये, आये जब तुम पहले-पहले।
स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं ... ...

मन की अतृप्त इच्छाओं में, यौवन की अभिलाषाओं में
हम नीड़ बनाते फिरते थे, तारों में और उल्काओं में
फिर आँधी एक चली ऐसी, प्रासाद हृदय का छिन्न हुआ
अब उस अतीत के खँडहर में, फिरते हैं हम पगले-पगले।
स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं ... ...


अमित

Sunday, June 14, 2009

गीत - जब जीवन की साँझ ढले

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जब जीवन की साँझ ढले तुम दीप जलाने आ जाना।
कुछ प्रभात कुछ दोपहरी की याद दिलाने आ जाना।

कंचन-कंचन घूम रहीं तुम मैं चन्दन-चन्दन फिरता
मैने तो संतोष कर लिया तुमको ठाँव नहीं मिलता
जब मृगतृष्णा का भ्रम टूटे प्यास बुझाने आ जाना
जब जीवन की साँझ ढले ... ... ...

चढ़ा हुआ सौन्दर्य तुम्हारा मेरी साँसें घुटी-घुटी
तुमने धरा छोड़ दी कब की चाल मेरी घिसटी-घिसटी
यौवन पवन शिथिल हो जाये मन बहलाने आ जाना
जब जीवन की साँझ ढले ... ... ...

लघु को विस्तृत कर देते जो कुछ प्रबुद्ध ऐसे भी हैं
रस पीकर अदृष्य हो जाते रसिक शुद्ध ऐसे भी हैं
जब मेरा मूल्यांकन कर लो अंक बताने आ जाना
जब जीवन की साँझ ढले ... ... ...


अमित (१९८४)

Friday, June 12, 2009

हे! अलक्षित।



व्याप्त हो तुम यों सृजन में
नीर जैसे ओस कन में
हे! अलक्षित।
तुम्हे
जीवन में, मरण में
शून्य में वातावरण में
पर्वतों में धूल कण में
विरह
में देखा रमण में
मनन
के एकान्त क्षण में
शोर
गुम्फित आवरण में
हे
! अनिर्मित।
तुम
कली की भंगिमा में
कोपलों
की अरुणिमा में
तारकों
में चन्द्रमा में
भीगती
रजनी अमा में
पुण्य
-सलिला अनुपमा में
ज्योत्स्ना
की मधुरिमा में
हे
! प्रकाशित।
गूढ़
संरचना तुम्हारी
तार्किक
की बुद्धि हारी
सभी
उपमायें विचारी
नेति
कहते शास्त्रधारी
बनूँ
किस छवि का पुजारी
मति
भ्रमित होती हमारी
हे
! अप्रस्तुत।
स्वयं
अपना भान दे दो
दृष्टि
का वरदान दे दो
रूप
का रसपान दे दो
नाद
स्वर का गान दे दो
और
अनुपम ध्यान दे दो
मुझे
शाश्वत ज्ञान दे दो
हे
! अयुग्मित।


अमित

Tuesday, June 2, 2009

ग़ज़ल - जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये


जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये
तकरीर ही करनी हो कहीं और जाइये

याँ महफ़िले-सुखन को सुखनवर की है तलाश
गर शौक आपको भी है तशरीफ़ लाइये।

फूलों की जिन्दगी तो फ़क़त चार दिन की है
काँटे चलेंगे साथ इन्हे आजमाइये।

क‍उओं की गवाही पे हुई हंस को फाँसी
जम्हूरियत है मुल्क में ताली बजाइये।

रुतबे को उनके देख के कुछ सीखिये 'अमित'
सच का रिवाज ख़त्म है अब मान जाइये।

-- अमित

Thursday, May 28, 2009

ग़ज़ल - माननीय अत्यन्त हो गए

जिसने आगे बढ़ कर छीना वे सज्जन श्रीमन्त हो गये
और पंक्ति में खड़े-खडे़ हम अक्षरहीन हलन्त हो गये

इतने भोले नहीं कि दुनिया छले और हम पता न पायें
उदासीन हो गये जो देखा घने लुटेरे संत हो गये

जब मादक संगीत खनकते सिक्कों का पड़ गया सुनाई
सभी इन्द्रियाँ जगी अचानक सभी अंग जीवन्त हो गये (१९९२)

जिनकी महिमा संरक्षित है कितने थानो के ग्रन्थों में
लोकतन्त्र का सूत्र पकड़कर माननीय अत्यन्त हो गये

जब भी संकट पड़ा राष्ट्र पर आई बलिदानो की बारी
चोर-रास्ता पकड़ भागने को तैय्यार तुरन्त हो गये



अमित (२७/०५/०९)

Tuesday, May 19, 2009

ग़ज़ल - किसी को घर नहीं देता

किसी को महल देता है किसी को घर नहीं देता
विधाता! इन सवालों का कोई उत्तर नहीं देता

जिन्हे निद्रा नहीं आती पडे़ हैं नर्म गद्दों पर
जो थक चूर हैं श्रम से उन्हे बिस्तर नहीं देता

ये कैसा कर्म जिसका पीढ़ियाँ भुगतान करती हैं
ये क्या मज़हब है जो सबको सही अवसर नहीं देता

तुम्हारी सृष्टि के कितने सुमन भूखे औऽ प्यासे हैं
दयानिधि! इनके प्यालों को कभी क्यों भर नहीं देता

मुझे विश्वास पूरा है, तेरी ताकत औऽ हस्ती पर
तू क्यों इक बार सबको इक बराबर कर नहीं देता


अमित (१९/०५/०९)

Sunday, May 17, 2009

नवगीत - वेदना

बीती जाय जवानी रे
बीती जाय जवानी (दो बार)

गई कपोलों की चिकनाई
पडी़ आँख के नीचे छाई
नई लकीरें उभर रही हैं
सलवट हुई पेशानी रे
बाती जाय जवानी

जुगराफ़िया हो गया ढीला
मध्य भाग में उभरा टीला
जकड़ गई है कमर, पीठ भी
झुक कर हुई कमानी रे
बाती जाय जवानी

खत्म हुई चालों की चुस्ती
छाई रहती अक्सर सुस्ती
यादें ही हैं शेष कि अब तो
मस्ती! हुई कहानी रे
बाती जाय जवानी

अंकल कह कर गई यौवना
उठी हृदय में तीव्र वेदना
तभी याद आ गया अचानक
बिटिया हुई सयानी रे
बाती जाय जवानी

एकालाप सुना जब उसने
कहा देखते हो क्यों सपने
बीत गई, फिर भी कहते हो
बीती जाय जवानी रे
बाती जाय जवानी


अमित (१७/०५/०९)
जुगराफ़िया = भूगोल, पेशानी = मस्तक

Monday, May 11, 2009

मुक्तक - प्रकीर्ण

है उड़ानों में चपलता और दाना चोंच में। पड़ गई है देख कर चिड़िया मुझे संकोच में। घोसले के पास तक उड़ती है पर घुसती नहीं, मैं न उसका आसियाना देख लूँ इस सोच में। अपनी ताकत आजमाना चाहता है। दूसरों को भी दिखाना चाहता है। मैं किसी मंदिर का घंटा हो गया हूँ, हर कोई जिसको बजाना चाहता है। जीवन की स्थितियों के ही अनुकूल गये। इतना सा है याद, बहुत कुछ भूल गये। मैं बापू के साथ मजूरी पर निकला, वो अपना बस्ता लेकर स्कूल गये। हालिया साँचों बिल्कुल फिट नहीं हूँ। दोस्तों की महफिलों में हिट नहीं हूँ। रंग मुझको भी बदलना चाहिये कुछ, आदमी हूँ क्या करूँ गिरगिट नहीं हूँ। आइये कुछ दूर चलिये जिन्दगी के साथ में। चीथड़ों का इक मुहल्ला उगा है फुटपाथ में। गन्दगी में बिलबिलाते मर्द, बच्चे, औरतें, प्लास्टिक का इक तिरंगा भी है उनके हाथ में। अमित

Friday, May 8, 2009

ग़ज़ल - बहुत गुमनामों में शामिल एक नाम अपना भी है

बहुत गुमनामों में शामिल एक नाम अपना भी है
इल्मे-नाकामी में हासिल इक मक़ाम अपना भी है

गौर करने के लिये भी कुछ न कुछ मिल जायेगा
हाले-दिल पर हक़ के बातिल इक कलाम अपना भी है

मेहरबाँ भी हैं बहुत और कद्रदाँ भी हैं बहुत
हो कभी ज़र्रानवाज़ी इन्तेजाम अपना भी है

कब हुज़ूरे-वक़्त को फ़ुरसत मिलेगी देखिये
मुश्त-ए-दरबान तक पहुँचा सलाम अपना भी है

चलिये मैं भी साथ चलता हूँ सफ़र कट जायेगा
आप की तक़रीर के पहले पयाम अपना भी है

इक परिन्दे की तरह बस आबो-दाने की तलाश
जिन्दगी का यह तरीका सुबहो-शाम अपना भी है

घर की चौखट तक मेरा ही हुक़्म चलता है ’अमित’
मिल्कीयत छोटी सही लेकिन निज़ाम अपना भी है


अमित
इल्मे-नाकामी = असफलता की विद्या, मक़ाम = स्थान, हक़ के बातिल = सच या झूठ, कलाम = वाणी या वचन, मेहरबाँ = दयालु, क़द्रदाँ = गुणग्राहक, ज़र्रानवाज़ी = दीनदयालुता, मुश्त-ए-दरबान = दरबान की मुट्ठी, तक़रीर = भाषण या उपदेश, पयाम = संदेश, आबो-दाना = अन्न-जल, मिल्कीयत = जायेदाद, निज़ाम = शासनव्यवस्था या प्रबन्धतन्त्र ।

Wednesday, May 6, 2009

ग़ज़ल - बतर्ज-ए-मीर

अक्सर ही उपदेश करे है, जाने क्या - क्या बोले है।
पहले ’अमित’ को देखा होता अब तो बहुत मुहँ खोले है।

वो बेफ़िक्री, वो अलमस्ती, गुजरे दिन के किस्से हैं,
बाजारों की रक़्क़ासा, अब सबकी जेब टटोले है।

जम्हूरी निज़ाम दुनियाँ में इन्क़िलाब लाया लेकिन,
ये डाकू को और फ़कीर को एक तराजू तोले है।

उसका मक़तब, उसका ईमाँ, उसका मज़हब कोई नहीं,
जो भी प्रेम की भाषा बोले, साथ उसी के हो ले है।

बियाबान सी लगती दुनिया हर रौनक काग़ज़ का फूल
कोलाहल की इस नगरी में चैन कहाँ जो सो ले है


अमित (06/05/09)

Monday, May 4, 2009

ग़ज़ल - अपनी - अपनी सलीब ढोता है

अपनी - अपनी सलीब ढोता है
आदमी कब किसी का होता है

है ख़ुदाई-निज़ाम दुनियाँ का
काटता है वही जो बोता है

जाने वाले सुकून से होंगे
क्यों नयन व्यर्थ में भिगोता है

खेल दिलचस्प औ तिलिस्मी है
कोई हँसता है कोई रोता है

सब यहीं छोड़ के जाने वाला
झूठ पाता है झूठ खोता है

मैं भी तूफाँ का हौसला देखूँ
वो डुबो ले अगर डुबोता है

हुआ जबसे मुरीदे-यार ’अमित’
रात जगता है दिन में सोता है

अमित(३०-०४-०९)

Friday, May 1, 2009

ग़ज़ल - रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं।

रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं।
ज़ीस्त की दुश्वारियाँ बढ़ती गईं।

पेशकदमी वो करे मैं क्यों बढ़ूँ,
इस अहम में दूरियाँ बढ़ती गईं।

आप भी तो खुश नहीं, मैं भी उदास
किसलिये फिर तल्ख़ियाँ बढ़ती गईं।

भूख ले आई शहर में गाँव को,
झुग्गियों पर झुग्गियाँ बढ़ती गईं।

मुस्कराहट सभ्यता का इक फ़रेब,
दिन-ब-दिन ऐय्यारियाँ बढ़ती गईं।

आग से महफ़ूज़ रह पायेगा कौन,
यूँ ही गर चिंगारियाँ बढ़ती गईं।

अम्न के संवाद के साये तले
जंग की तैय्यारियाँ बढ़ती गईं।

अमित (२६ अप्रैल, ०९)
ज़ीस्त = जीवन, पेशकदमी = पहल, ऐय्यारियाँ = छल, चालाकियाँ, तल्ख़ियाँ = कटुतायें
दुश्वारियाँ = कठिनाइयाँ

Wednesday, April 29, 2009

कवि कुछ रचो नवीन, वीन झंकृत हो मन की।

कवि कुछ रचो नवीन, वीन झंकृत हो मन की।

कल की जड़ीभूत उपमायें
विम्ब पुरातन वही कथायें
पात ढाक के तीन, कथा रह गई सृजन की।

सूर्य नहीं अब देव, पड़ोसी तारा
चंद्रयान ने शशिमुख-दर्प उतारा
दीप बल्ब से क्षीन, व्यथा क्या शलभ दहन की।

जीन्स-टाप में बस से लटकी बाला
अमराई की जगह मॉल है आला
कोयल हुई विलीन, एफेम धड़कन यौवन की।

ख़त्म हुये आँगन, चौपाल ओसारे
बालकनी में गोरी केश सँवारे
हैं लैला जी स्कूटी-आसीन, घटी महिमा ऊँटन की।

’मैं करता हूँ प्रेम तुम्हे’ है मुख में
मन अटका है किन्तु अन्य से सुख में
हुई बहुत प्राचीन, कल्पना विरह-मिलन की।

मोबाइल ले लिया यक्ष ने जबसे
करती एसेमेस मेल यक्षिणी तबसे
बादल उद्यमहीन, बही धारा अँसुअन की।

जायें क्यों खजुराहो और एलोरा
प्रभुकृत जीवित प्रतिमायें चहुँओरा
दीर्घ वस्त्र कौपीन, व्यवस्था नवप्रचलन की।

कवि कुछ रचो नवीन, वीन झंकृत हो मन की।

अमित (२७-०४-०९)
मॉल = Mall, एफ़ेम = FM, एसेमेस = SMS, मेल = Mail, वीन = वीणा

Saturday, April 25, 2009

ग़ज़ल - मैं खड़ा बीच मझधार किनारे क्या कर लेंगे

मैं खड़ा बीच मझधार किनारे क्या कर लेंगे
मैने छोड़ी पतवार सहारे क्या कर लेंगे

तुम क़िस्मत-क़िस्मत करो जियो याचक बन कर
मैं चला क्षितिज के पार सितारे क्या कर लेंगे

तुम दिखलाते हो राह मुझे मंजिल की,
मैं आँखों से लाचार इशारे क्या कर लेंगे

हम ने जो कुछ भी कहा वही कर बैठे
जो सोचें सौ-सौ बार बेचारे क्या कर लेंगे

ना समझ कहोगे तुम मुझको मालूम है
ये फ़तवे हैं बेकार तुम्हारे क्या कर लेंगे

Thursday, April 16, 2009

गीत - रात देखो जा रही है।

भय कहीं विश्राम लेने जा रहा है
भोर का तारा नज़र बस आ रहा है
और अब पहली किरन मुस्का रही है
रात देखो जा रही है।

फड़फड़ाये पंख पीपल के
कि पत्ते पक्षियों के
झुण्ड वापस जा रहे हैं
नगर के उपरक्षियों के
ठण्ड से सिकुड़ी हवा
मानो पुनः गति पा रही है।
रात देखो जा रही है।

मौन था अभिसार फिर भी
मुखर है अभिव्यक्ति उसकी
जागरण के चिह्न आँखों में
लटें हैं मुक्त जिसकी
भींचती रसबिम्ब
आँगन पार करती आ रही है।
रात देखो जा रही है।

यंत्र-चालित से उठे हैं हाथ
यह क्या? पार्श्व खाली
कहा दर्पण ने मिटा लो
वक्त्र से सिन्दूर, लाली
रात्रि के मधुपान की
स्मृति हृदय सहला रही है।
रात देखो जा रही है।

फिर उड़ेला चिमनियों ने
ज़हर सा वातावरण में
हुआ कोलाहल चतुर्दिक
उठो, भागो चलो रण में
स्वप्न-समिधा ,
जीविका की वेदिका सुलगा रही है।
रात देखो जा रही है।
- अमित

Sunday, April 12, 2009

ग़ज़ल - उम्र भर का ये कारोबार रहा।

उम्र भर का ये कारोबार रहा।
इक इशारे का इन्तेजार रहा।

जान आख़िर को किस तरह बचती
जो था क़ातिल वही क़रार रहा।

उसने वादा नहीं किया फिर भी
उसकी सूरत पे ऐतिबार रहा।

जितने सच बोलने पड़े मुझको
उतने झूँठों का कर्जदार रहा।

मुझको मौका नहीं मिला कोई
मैं यक़ीनन ईमानदार रहा।

जिसका ख़ंजर तुम्हारी पीठ में है
अब तलक वो तुम्हारा यार रहा।

फ़ैसला क़त्ल का दो टूक हुआ
ख़ुद ही मक़्तूल जिम्मेदार रहा।

सोच लेना गु़रूर से पहले
वक़्त पर किसका इख़्तियार रहा।

जब्त से काम लिया फिर भीअमित
चेहरा कमबख़्त इश्तेहार रहा।
- अमित

Saturday, April 11, 2009

गीत - अपने-अपने अंधकार में जीते हैं।

अपने दोष दूसरों के सिर पर मढ़ कर
रोज घूँट-दो-घूँट दम्भ के पीते हैं।
ज्योति-पुंज के चिह्न टाँगकर दरवाजों पर
अपने-अपने अंधकार में जीते हैं।

प्रायः तन को ढकने में असमर्थ हुई,
कब की जर्जर हुई या कहें व्यर्थ हुई,
किन्तु मोह के आगे हम ऐसे हारे
रोज उसी चादर को बुनते सीते है।
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

जीवन एक पहेली है सबके आगे,
परिभाषाओं मे भी उग आते धागे,
निज मत की अनुशंसा में हैं व्यस्त सभी
सबके अपने साधन और सुभीते है।
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

महाबली भी यहाँ काल से छले गये,
विश्वविजयआकांक्षी कितने चले गये
किन्तु आज भी रक्त रक्त का प्यासा है,
शायद हम अनुभव के फल से रीते हैं
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

प्रवृत्तियाँ शिक्षा देतीं निर्लोभन की
जोंक बताती बात रक्त के अवगुन की.
असमंजस मे निर्विकार हो बैठे ज्यों
गीता के उपदेश हमी पर बीते हैं।
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।


अमित (१९९०)

Monday, April 6, 2009

मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।



मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।

मुझे आती है इक भाषा कि जिसमें बोलता हूँ मैं
हृदय के स्राव को शब्दों के जल में घोलता हूँ मै
वो भाषा जिसमें तुतलाकर मैं पहली बार बोला था
जिसे सुनकर मेरी माँ के नयन में अश्रु डोला था
उठा कर बाँह में उसने मेरे मुखड़े को चूमा था
सुनहरे स्वपन का इक सिलसिला आँखों में घूमा था
वो भाषा मेरे होंठों पर दुआ बन करके चिपकी है
वो किस्सा है, कहानी है, वो लोरी है, वो थपकी है
खुले आकाश में अपने परों को तोलती है वो

मेरी भाषा को सीमाओं की चकबन्दी नहीं आती
मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।

न वर्णों का समुच्चय है, न व्याकरणों की टोली है
मेरी भाषा, मेरे अन्तर के उद्‍गारों की बोली है
दृगों के मौन सम्भाषण में भी मुँह खोलता हूँ मैं
जहाँ होता है सन्नाटा, वहाँ भी बोलता हूँ मैं
ये पर्वत, वन, नदी, झरने इसी में वास लेते हैं
मृगादिक, वन्य पशु-पक्षी इसी में साँस लेते हैं
मेरी भाषा में बोले, आदिकवि, मिल्टन कि हों गेटे
वो ग़ालिब, संत तुलसी, मीर या बंगाल के बेटे
जगत की वेदनाओं से सहज संवाद करती है

मेरी भाषा को विश्वासों की पाबंदी नहीं आती
मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।


मुझे कुछ रोष है ऐसे स्वघोषित कलमकारों पर
इबारत जो नहीं पढ़्ते भविष्यत की दीवारों पर
जो बहते नीर को पोखरों-कुओं में बाँट  देते हैं
जो  अपने मत प्रवर्तन हेतु  खेमें    छाँट  लेते हैं
मुझे प्रतिबद्धता की कल्पना प्रतिबंन्ध लगती है
सॄजन के क्षेत्र में यह वर्जना की गन्ध लगती है
हृदय के भाव अनगढ़ हों तो सोंधे और सलोने हैं
किसी मत में जकड़ते ही ये बेदम से खिलौने हैं
विचारों के नये पुष्पों के सौरभ में नहाती है
मेरी भाषा को सिन्द्धान्तों की गुटबन्दी नहीं आती
मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती


- अमित
इस कविता को आप यू-ट्यूब पर यहाँ सुन सकते हैं



Saturday, April 4, 2009

कुछ सामयिक मुक्तक

कुछ सामयिक मुक्तक

()
पानी - पानी रंग हो गये।
मौसम सब बदरंग हो गये।
मुझसे तुम्हे जोड़ते थे जो,
वो गलियारे तंग हो गये।

()
सच पर इतने फन्दे क्यूँ हैं।
झूठे गोरखधन्धे क्यूँ है।
धृतराष्ट्रों के भी संजय हैं,
आँखों वाले अंधे क्यूँ हैं।

()
सच कहने से डरते क्यूँ हो।
घुट-घुट आहें भरते क्य़ूँ हो।
कौन मरा दो बार आज तक,
रोज-रोज फिर मरते क्यूँ हो।

()
मेरे घर बदहाली क्यूँ है।
सर से सटी दुनाली क्यूँ है।
वादों की फसलें अच्छी हैं,
थाली फिर भी खाली क्यूँ है।

()
कुत्ता अस्थि चबाता क्यूँ है।
हाकिम रिश्वत खाता क्यूँ।
कभी किसी ने पूँछा इनसे,
तू भी खा चिल्लाता क्यूँ है।

- अमित