Saturday, October 15, 2011

कुछ दोहे



ठगिनी माया खा गई, पुण्यों की सब खीर
तन जर्जर मन भुरभुरा, आये याद कबीर

आँसू तो चुक-चुक गये, लेकिन चुकी न पीर
जनम गँवाया व्यर्थ में, रह-रह उठे समीर

बन-पर्वत-नदियाँ-पुलिन, कहीं न मिलती ठाँव
प्रियतम की नगरी कहाँ, कहाँ प्रीति का गाँव

दुश्कर प्रीति निबाहना, जैसे पानी-रंग
जल की अंतिम बूँद तक, रंग न छोड़े संग

अनजाने जाने हुये, जाने हुये अजान
नियति नटी के होंठ पर, खेल गई मुस्कान

-अमित




Tuesday, September 13, 2011

एक अन्तहीन कविता


रिसने लगा है पानी
पसीजी दीवारों से
आँखों से अब
और आँसू नहीं पिये जाते
पहले रंग उतरा
और अब उखड़ने लगा है
पलस्तर भी
दीवार की कुरूपता
उजागार हो रही है 
धीरे-धीरे
व्यर्थ-आशा के गारे में
जकड़ी हैं
कसमसाती ईंटें
कब तक और कहाँ तक?

जीवन!
मखमल में लिपटा
कूड़े का ढेर
कृत्रिम गन्धों से सुवासित
अन्तस्तल से असम्पृक्त
एक अन्तहीन विडम्बना

प्लास्टिक के फूलों जैसे
ऋतु-निरपेक्ष
संवेदनाओं के ब्लैक-होल
यंत्रचालित यंत्रणा 
के आविष्कारक और नियंत्रक 
इस युग के ईश्वर

जीविका के भार से
लहूलुहान!
खोजता,
अपने अस्तित्त्व के
समाधान
हर चेहरे से पूछता है
उसकी पहचान
हे! सृष्टि की कृति
महान!!
क्या इसीलिये किया था
मेरा वरण?
क्या यही है
सहस्राब्दियों का
तुम्हारा विकास?
या तुम्हारी बुद्धि का
अपशिष्ट!
गुफायें साक्षी हैं
कितनी लुभावनी थी
तुम्हारी किलकारी
आज अन्तरिक्ष में
गूँजता है तुम्हारा
क्रूर अट्टहास!
किसका परिहास?

रक्त के समुद्र में
समाने को तत्पर
सभ्यता
कृत्रिमता से आबद्ध
जीवन की हर व्यथा
नकली ने 
प्रचलन से बाहर कर दिया
असली को
आँगन में कैक्टस
और मरुथल में तुलसी

हृदय की हर चीत्कार
अरण्यरोदन
हर सम्बोधन
एक प्रलाप

अमित

Tuesday, August 16, 2011

कविता - इस बार आओगे तो पाओगे



इस बार आओगे तो पाओगे...

नये फ्रेम में लगा दी है
मैनें अपनी और तुम्हारी तस्वीर,
निहारती हूँ मेरे कन्धे पर रखे
तुम्हारे हाथ
और तुम्हारे चेहरे की मुस्कान को...

इस बार आओगे तो पाओगे
बालकनी में रखे हैं
मैंनें सात गमले
तुम्हारी सुधियों के पौधे लगाकर
रोज़ सींचती हूँ उन्हें
अपने स्पर्श से 
और छलक आये आँसुओं से...

इस बार आओगे तो पाओगे
मैंनें सजा कर रखी है
तुम्हारी कलम,
जिसे तुम भूल गये थे
(हमेशा की तरह)
और वो कप भी
जिससे तुमने चाये पी थी
जाने से पहले...

इस बार आओगे तो पाओगे
मेरे कानों के ऊपर
उग आये हैं 
चाँदी के धागे
तुम्हारे चेहरे से निकली किरण
मेरी आँखों में समाने से पहले
आयेगी निर्जीव शीशे से
छनकर...

इस बार आओगे तो पाओगे
मैं लड़ रही हूँ
अपनी ही परछाई से
बन्द कर दिये हैं
रोशनदान
बुझा दिये हैं
बल्ब और ट्यूब
ओढ़ ली है 
एक मोटी चादर
तुम्हारे वादों की...

इस बार आओगे तो पाओगे
मैंने हटा दी है
कॉलबेल,
तभी से बन्द हैं ये दरवाज़े
तुम्हारी उस ख़ास दस्तक 
की प्रतीक्षा में
जिसे केवल मैं जानती हूँ।

तुम, 
कब आओगे?...


Thursday, August 11, 2011

नवगीत - गाँव की बदल गई है भोर



कोयल की कूकों में शामिल है ट्रैक्टर का शोर
धान-रोपाई के गीतों की तान हुई कमजोर
गाँव की बदल गई है भोर।

कहाँ गये सावन के झूले औऽ कजरी के गीत
मन के भोले उल्लासों पर है टीवी की जीत
इतने चाँद उगे हर घर में चकरा गया चकोर

समाचार-पत्रों में देखा बीती नागपच‌इयाँ
गुड़िया ताल रंगीले-डण्डे कहाँ गईं खजुल‌इयाँ
दंगल गुप्प अखाड़े सूने बाग न कोई मोर

दरवाजे पर गाय न गोरू भले खड़ी हो कार
कीचड़-माटी कौन लपेटे जब चंगा व्यौपार
खेतों-खलिहानों में उगते मॉल और स्टोर

अमित
शब्दार्थ: खजुल‍इयाँ = जरई, जवारे|



Tuesday, July 26, 2011

गीत - हाँ! ऐसा भी हो सकता है




एक बूँद गहरा पानी भी
सौ जलयान डुबो सकता है
हाँ! ऐसा भी हो सकता है

पीड़ा की अनछुई तरंगे
जब मानस-तट से टकरातीं
कुछ फेनिल टीसें बिखराकर
आस-रेणु भी संग ले जातीं
इस तरंग-क्रीड़ा से मन को
बहला तो लेता हूँ फिर भी
धैर्य-पयोनिधि का इक आँसू
सौ बड़वानल बो सकता है
हाँ! ऐसा भी हो सकता है

तथाकथित प्रेमों में उलझी
देखीं देह-कथायें कितनी
क्षण-उत्साही त्वरित वेग की
चमकीली उल्कायें कितनी
पोर-पोर रससिक्त दिखा है
किन्तु कलश रीता है फिर भी
सत्य-स्नेह का दावानल तो 
चित्ताकाश बिलो सकता है
हाँ! ऐसा भी हो सकता है

लक्ष्य, अलक्ष्य रहा जीवन भर
थकित पाँव, पड़ गये फफोले
प्रत्याशा में हमने कितने
सुविज्ञात संबन्ध टटोले
मेघाच्छन्न अमा-रजनी में
किंचित शब्द दिखा दें रस्ता
किन्तु दिवस के कोलाहल में
राही प्रायः खो सकता है
हाँ! ऐसा भी हो सकता है

अमित
शब्दार्थ:
धैर्य-पयोनिधि - धीरज का समुद्र, बड़वानल - समुद्र में लगने वाली आग या ताप, दावानल - जंगल की आग, चित्ताकाश - चित्त का आकाश, बिलो - बिलोना - मथना, मेधाच्छन्न - बादलों से भरी हुई, अमा-रजनी - अमावस्या की रात, अलक्ष्य - अप्रकट या अदृष्य।


Wednesday, April 27, 2011

नवगीत - बस इतना सा समाचार है।

 
जितना अधिक पचाया जिसने
उतनी ही छोटी डकार है
बस इतना सा समाचार है

निर्धन देश धनी रखवाले
भाई चाचा बीवी साले
सबने मिलकर डाके डाले
शेष बचा सो राम हवाले
फिर भी साँस ले रहा अब तक
कोई दैवी चमत्कार है
बस इतना सा समाचार है

चादर कितनी फटी पुरानी
पैबन्दों में खींचा-तानी
लाठी की चलती मनमानी
हैं तटस्थ सब ज्ञानी-ध्यानी
जितना ऊँचा घूर, दूर तक
उतनी मुर्ग़े की पुकार है
बस इतना सा समाचार है

पढ़े लिखे सब फेल हो गये
कोल्हू के से बैल हो गये
चमचा, मक्खन तेल हो गये
समीकरण बेमेल हो गये
तिकड़म की कमन्द पर चढ़कर
सिद्ध-जुआरी किला-पार है
बस इतना सा समाचार है

जन्तर-मन्तर टोटका टोना
बाँधा घर का कोना-कोना
सोने के बिस्तर पर सोना
जेल-कचेहरी से क्या होना
करे अदालत जब तक निर्णय
धन-कुनबा सब सिन्धु-पार है
बस इतना सा समाचार है

मन को ढाढस लाख बधाऊँ
चमकीले सपने दिखलाऊँ
परी देश की कथा सुनाऊँ
घिसी वीर-गाथायें गाऊँ
किस खम्भे पर करूँ भरोसा
सब पर दीमक की कतार है
बस इतना सा समाचार है

-- अमित


Wednesday, April 13, 2011

मेरे मित्र, मेरे एकांत


मेरे मित्र मेरे एकान्त
सस्मित और शान्त
कितने सदय हो
सुनते हो मन की
टोका नहीं कभी
रोका भी नहीं कभी
तुम्हारे साथ जो पल बीते
सम्बल है उनका
हम रहे जीते

मेरे मित्र
मेरे एकान्त
आज बहुत थका सा
लौटा हूँ भ्रमण से
पदचाप सुनता हूँ
कल्पित विश्रान्ति का
या अपनी भ्रान्ति का

मेरे मित्र
मेरे एकान्त
जानते  हो! 
केवल एक तुम ही
मेरे एकालाप को
सुनते हो बिन-उकताये
इसीलिये बार-बार
दुनिया से हार-हार
शरण में आता हूँ

मेरे प्रिय सुहृद
मेरे एकान्त
क्या तुम मुझे नहीं रख सकते
सदैव अपने अंक में
कोलाहल से दूर
जहाँ मैं सो लूँ
एक नींद
जो फिर न खुले
 
--अमित

Sunday, March 20, 2011

यादें बचपन की


यायावर के फेरों जैसा है यह जीवन बारहमासी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी
 
नानी की मुस्कान पोपली, माँ की झुँझलाई सी बोली
भ‌इय्या का तीखा अनुशासन, औऽ बहनों की हँसी ठिठोली
दादी की पूजा-डलिया से, जब की थी प्रसाद की चोरी 
हुई पितामह के आगे सब, पापा जी की अकड़ हवा सी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी

पट्टी-कलम-दवातों के दिन, शाला के भोले सहपाठी
कानों में गुंजित है अब भी, ल‌उआ-लाठी चन्दन-काठी
झगड़े-कुट्टी-मिल्ली करना, गुरुजन के भय से चुप रहना
विद्या की कसमें खा लेना, बात-बात पर ज़रा-ज़रा सी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी

गरमी की लम्बी दोपहरें, बाहर जाने पर भी पहरे
सोने के निर्देश सख़्त पर, कहाँ नींद आँखों में ठहरे
ढली दोपहर आइस-पाइस, गिल्ली-डन्डा, लंगड़ी-बिच्छी
खेल-खेल में बीत गया दिन, आई संध्या लिये उबासी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी

पंख लगा कर कहाँ उड़ गये, मादक दिवस नशीली रातें
अम्बर-पट के ताराओं से, करते प्रिय-प्रियतम की बातें
स्वप्न-यथार्थ-बोध की उलझन, सुलझ न पाई जब यत्नों से
घर की छाँव छोड़ जाने कब, मन अनजाने हुआ प्रवासी
सुधियों की कुछ गठरी खोलें जब भी मन पर छाय उदासी

अमित

 

Thursday, March 17, 2011

गीत - मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ







मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ,
मैं अपलक रूप निहारूँ तुम मुस्काओ।

कर से कर खेल रहे हों,
अधरों से अधर जुड़े हों,
प्रश्वासों निश्वासों के 
झोंके उखड़े-उखड़े हों,
तुम शीश उठाकर धीमे से
हँस दो फिर रत हो जाओ।

मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ।

अधरों के आकर्षण से
गति हृदयों की मिल जाये,
बंधन इतना दृढ़ कर दो
बस प्राण निकल ही जाये,
तुम मुझे छिपा लो अंतर में
या फिर मुझमें छिप जाओ।

मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ।

हैं मिले आज जो क्षण वे
कल भी हों बहुत कठिन है,
वैसे भी मानव तन की
यह आयु मात्र दो दिन है,
फिर क्यों न आज इस क्षण को
पूरा पूरा जी जाओ।

मैं आँखें मूँदें सुनूँ और तुम गाओ।

-अमित


Tuesday, March 1, 2011

नज़्म - एक बेनाम महबूब के नाम


चाहता हूँ कि तेरा रूप मेरी चाह में हो
तेरी हर साँस मेरी साँस की पनाह में हो
मेरे महबूब तेरा ख़ुद का जिस्म न हो
मेरे एहसास की मूरत कोई तिलिस्म न हो
ढूँढता फिरता हूँ हर सिम्त भुला के ख़ुद को
अपनी पोशीदा रिहाइश का पता दे मुझको
तुझसे मिलने की क़सम मैंने नहीं तोड़ी है
दिल ने उम्मीद बहरहाल नहीं छोड़ी है
तुझको पाने का अभी मुझको इख़्तियार नहीं
पर मेरा इश्क़ कोई रेत की दीवार नहीं
बावफ़ा अब भी हूँ पर मेरी कहानी है अलग
मेरी आँखें हैं अलग आँख का पानी है अलग
अब न मजबूरी-ओ-दूरी का गिला कर मुझसे
यूँ नहीं है तो तसव्वुर में मिला कर मुझसे
मेरे महबूब तू इक रोज़ इधर आयेगा
हाँ मगर वक़्त का दरिया तो गुज़र जायेगा
तब न शाख़ों पे कहीं गुल नही पत्ते होंगे
जा-ब-जा बिखरे हुये बर्फ़ के छत्ते होंगे
एक मनहूस सफ़ेदी यहाँ फैली होगी
चाँदनी अपनी ही परछाई से मैली होगी
तब भी जज़्बात पे हालात का पहरा होगा
वक़्त इक फीकी हँसी पर कहीं ठहरा होगा
पस्त-कदमों से तू चलता हुआ जब आयेगा
सर्द-तूफ़ान के झोकों से सिहर जायेगा
मेरे अल्फ़ाज़ में तब भी यही नरमी होगी
और मेरे कोट में अहसास की गरमी होगी

--अमित
शब्दार्थ:

तिलिस्म = रहस्य, हर सिम्त = सभी ओर या हर तरफ़,  पोशीदा रिहाइश = गुप्त निवास, बहरहाल = हर हाल में, इख़्तियार = अधिकार,बावफ़ा = बफ़ादार, गिला = शिकायत, तसव्वुर = ख़याल या ध्यान, जा-ब-जा = जगह - जगह, ज़ज़्बात = भवनायें, हालात = परिस्थितियाँ,पस्त-कदमों से = छोटे कदमों से, अल्फ़ाज़ में = शब्दों में, कोट = कोट।

(चित्र गूगल से साभार)

Thursday, February 24, 2011

बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु - निराला


 
बसन्त पन्चमी पर निराला जी की स्मृति में निम्न कविता लिखी थी परन्तु समय और सुविधा के अभाव में प्रेषित नहीं कर सका था। आज प्रेषित कर रहा हूँ क्योंकि बसन्त ऋतु तो अभी भी है।


था यहाँ बहुत एकान्त बन्धु
नीरव रजनी सा शान्त बन्धु
दुःख की बदली सा क्लान्त बन्धु
नौका-विहार दिग्भ्रान्त बन्धु

तुम ले आये जलती मशाल
उर्जस्वित स्वर देदीप्य भाल
हे! कविता के भूधर विशाल
गर्जित था तुममें महाकाल

भाषा को दे नव-संस्कार
वर्जित-वंचित को दे प्रसार
कविता-नवीन का समाहार
करने में जीवन दिया वार

विस्मित है जग लख, महाप्राण!
अप्रतिहत प्रतिभा के प्रमाण
नर-पुंगव तुमने सहे बाण
निष्कवच और बिन सिरस्त्राण

अब श्रेय लूटने को अनेक
दादुर मण्डलियाँ रहीं टेक
कैसा था साहित्यिक विवेक
छिटके थे करके एक-एक

झेले थे कितने दाँव बन्धु
दृढ़ रहे तुम्हारे पाँव बन्धु
है, यह मुर्दों का गाँव बन्धु
बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु

'अमित'

Wednesday, January 26, 2011

मैं अजन्मा, जन्मदिन किसका मनाऊँ?


मैं अजन्मा,
जन्मदिन किसका मनाऊँ?


पंचभूतों के विरल संघात का?
क्षरित क्षण-क्षण हो रहे जलजात का?
दो दिनो के ठाट मृण्मय गात का
या जगत की वासना सहजात का?
किसे निज-अस्तित्त्व का
स्यन्दन बनाऊँ
मैं अजन्मा
जन्मदिन किसका मनाऊँ

किये होंगे जगत के अनगिनित फेरे
मिले होंगे वास के लाखों बसेरे 
हैं कहाँ वो पूर्व के अवशेष मेरे?
सर्वग्रासी हैं अदृश-पथ के अँधेरे
समय के किस बिन्दु पर
टीका लगाऊँ
मैं अजन्मा
जन्मदिन किसका मनाऊँ?

नित्य स्लथ होते हुये इस आवरण को
देखता हूँ शिथिल होते आचरण को
खोजता हूँ लुप्त से अन्तःकरण को
कहाँ पहुँचा! खोजता अपनी शरण को
क्या अभीप्सित है,
भ्रमित हूँ क्या बताऊँ?
मैं अजन्मा
जन्मदिन किसका मनाऊँ?

-अमित

Friday, January 7, 2011

ग़ज़ल - किसी को इतना न चाहो के बदग़ुमा हो जाय


किसी को इतना न चाहो के बदगुमाँ हो जाय
न लौ को इतना बढ़ाओ के वो धुआँ हो जाय

ग़र हो परवाज़ पे पहरा ज़ुबाँ पे पाबन्दी
तो फिर क़फ़स ही मेरा क्यों न आशियाँ हो जाय

न चुप ही गुज़रे न रोकर शबे-फ़िराक़ कटे
तू एक झलक दिखा कर जो बेनिशाँ हो जाय

लोग लेते हैं मेरा नाम तेरे नाम के साथ
कल ये अफ़वाह ही बढ़ कर न दास्ताँ हो जाय

ख़ुशमिज़ाजी भी तेरी मुझको डरा देती है 
तेरा मज़ाक रहे, मेरा इम्तेहाँ हो जाय

सितमशियार कई और हैं तुम्हारे सिवा
कहीं न दर्द मेरा, दर्दे-ज़ाविदाँ हो जाय

भीख में इश्क़ भी मुझको नहीं कुबूल 'अमित'
भले वो जाने-सुकूँ मुझसे सरगिराँ हो जाय

अमित

शब्दार्थ:  परवाज़ = उड़ान, क़फ़स = पिंजरा, शबे-फ़िराक़ = वियोग की रात, सितमशियार = अत्याचार करने वाला/वाले, दर्दे-ज़विदाँ = स्थाई दर्द जो मृत्यु के साथ ख़त्म होता है, जाने-सुकूँ = शान्ति प्रदान करने बाला प्रिय-पात्र, सरगिराँ = रुष्ट, नाख़ुश।

Saturday, January 1, 2011

नव-वर्ष २०११ मंगलमय हो!

नव-छन्द सजे नव-गीत रचें नव-बिम्ब सुसज्जित काव्य-कला
सब रागिनियाँ मनुहार करें नव-बीन गहें कर में विमला
नववर्ष प्रहर्ष प्रदायक हो जग-प्रीति सुनीति रहे सुफला
तन-ताप मिटे मन-मोद बढ़े नित कोष भरें घर में कमला
'अमित'