Saturday, June 27, 2009

नवगीत - गर्मी के दिन।

भोर जल्द भाग गई लू के डर से
साँझ भी निकली है बहुत देर में घर से
पछुँआ के झोकों से बरसती अगिन
गर्मी के दिन।
पशु-पक्षी पेड़-पुष्प सब हैं बेहाल
सूरज ने बना दिया सबको कंकाल
माँ चिड़िया लाती पर दाने बिन-बिन
गर्मी के दिन।
हैण्डपम्प पर कौव्वा ठोंक रहा टोंट
कुत्ता भी नमी देख गया वहीं लोट
दुपहरिया बीत रही करके छिन-छिन
गर्मी के दिन।
बच्चों की छुट्टी है नानी घर तंग
ऊधम दिन भर, चलती आपस की जंग
दिन में दो पल सोना हो गया कठिन
गर्मी के दिन।
शादी बारातों का न्योता है रोज
कहीं बहूभोज हुआ कहीं प्रीतिभोज
पेट-जेब दोनों के आये दुर्दिन
गर्मी के दिन।
गर्मी के दिन।


-अमित

Friday, June 26, 2009

ग़ज़ल तरही - साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है

इल्तिजा उसकी मुहब्बत में सनी होती है
साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है

यूँ कमानी की तरह भौंह तनी होती है
नज़र पड़ते ही कहीं आगजनी होती है

अपना ही अक्स नज़र आती है अक्सर मुझको
वो हर इक चीज जो मिट्टी की बनी होती है

सौदा-ए-इश्क़ का दस्तूर यही है शायद
माल लुट जाये है तब आमदनी होती है

मैं पयाले को कई बार लबों तक लाया
क्या करूँ जाम की क़िस्मत से ठनी होती है

इतने अरमानो की गठरी लिये फिरते हो ’अमित’
उम्र इंसान की आख़िर कितनी होती है


- अमित

Wednesday, June 17, 2009

गीत - स्मृति के वे चिह्न


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स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं, कुछ उजले कुछ धुंधले-धुंधले।
जीवन के बीते क्षण भी अब, कुछ लगते है बदले-बदले।

जीवन की तो अबाध गति है, है इसमें अर्द्धविराम कहाँ
हारा और थका निरीह जीव, ले सके तनिक विश्राम जहाँ
लगता है पूर्ण विराम किन्तु, शाश्वत गति है वो आत्मा की
ज्यों लहर उठी और शान्त हुई, हम आज चले कुछ चल निकले।
स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं ... ...

छिपते भोरहरी तारे का, सन्ध्या में दीप सहारे का
फिर चित्र खींच लाया है मन, सरिता के शान्त किनारे का
थी मनश्क्षितिज में डूब रही, आवेगोत्पीड़ित उर नौका
मोहक आँखों का जाल लिये, आये जब तुम पहले-पहले।
स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं ... ...

मन की अतृप्त इच्छाओं में, यौवन की अभिलाषाओं में
हम नीड़ बनाते फिरते थे, तारों में और उल्काओं में
फिर आँधी एक चली ऐसी, प्रासाद हृदय का छिन्न हुआ
अब उस अतीत के खँडहर में, फिरते हैं हम पगले-पगले।
स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं ... ...


अमित

Sunday, June 14, 2009

गीत - जब जीवन की साँझ ढले

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जब जीवन की साँझ ढले तुम दीप जलाने आ जाना।
कुछ प्रभात कुछ दोपहरी की याद दिलाने आ जाना।

कंचन-कंचन घूम रहीं तुम मैं चन्दन-चन्दन फिरता
मैने तो संतोष कर लिया तुमको ठाँव नहीं मिलता
जब मृगतृष्णा का भ्रम टूटे प्यास बुझाने आ जाना
जब जीवन की साँझ ढले ... ... ...

चढ़ा हुआ सौन्दर्य तुम्हारा मेरी साँसें घुटी-घुटी
तुमने धरा छोड़ दी कब की चाल मेरी घिसटी-घिसटी
यौवन पवन शिथिल हो जाये मन बहलाने आ जाना
जब जीवन की साँझ ढले ... ... ...

लघु को विस्तृत कर देते जो कुछ प्रबुद्ध ऐसे भी हैं
रस पीकर अदृष्य हो जाते रसिक शुद्ध ऐसे भी हैं
जब मेरा मूल्यांकन कर लो अंक बताने आ जाना
जब जीवन की साँझ ढले ... ... ...


अमित (१९८४)

Friday, June 12, 2009

हे! अलक्षित।



व्याप्त हो तुम यों सृजन में
नीर जैसे ओस कन में
हे! अलक्षित।
तुम्हे
जीवन में, मरण में
शून्य में वातावरण में
पर्वतों में धूल कण में
विरह
में देखा रमण में
मनन
के एकान्त क्षण में
शोर
गुम्फित आवरण में
हे
! अनिर्मित।
तुम
कली की भंगिमा में
कोपलों
की अरुणिमा में
तारकों
में चन्द्रमा में
भीगती
रजनी अमा में
पुण्य
-सलिला अनुपमा में
ज्योत्स्ना
की मधुरिमा में
हे
! प्रकाशित।
गूढ़
संरचना तुम्हारी
तार्किक
की बुद्धि हारी
सभी
उपमायें विचारी
नेति
कहते शास्त्रधारी
बनूँ
किस छवि का पुजारी
मति
भ्रमित होती हमारी
हे
! अप्रस्तुत।
स्वयं
अपना भान दे दो
दृष्टि
का वरदान दे दो
रूप
का रसपान दे दो
नाद
स्वर का गान दे दो
और
अनुपम ध्यान दे दो
मुझे
शाश्वत ज्ञान दे दो
हे
! अयुग्मित।


अमित

Tuesday, June 2, 2009

ग़ज़ल - जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये


जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये
तकरीर ही करनी हो कहीं और जाइये

याँ महफ़िले-सुखन को सुखनवर की है तलाश
गर शौक आपको भी है तशरीफ़ लाइये।

फूलों की जिन्दगी तो फ़क़त चार दिन की है
काँटे चलेंगे साथ इन्हे आजमाइये।

क‍उओं की गवाही पे हुई हंस को फाँसी
जम्हूरियत है मुल्क में ताली बजाइये।

रुतबे को उनके देख के कुछ सीखिये 'अमित'
सच का रिवाज ख़त्म है अब मान जाइये।

-- अमित