Wednesday, April 29, 2009

कवि कुछ रचो नवीन, वीन झंकृत हो मन की।

कवि कुछ रचो नवीन, वीन झंकृत हो मन की।

कल की जड़ीभूत उपमायें
विम्ब पुरातन वही कथायें
पात ढाक के तीन, कथा रह गई सृजन की।

सूर्य नहीं अब देव, पड़ोसी तारा
चंद्रयान ने शशिमुख-दर्प उतारा
दीप बल्ब से क्षीन, व्यथा क्या शलभ दहन की।

जीन्स-टाप में बस से लटकी बाला
अमराई की जगह मॉल है आला
कोयल हुई विलीन, एफेम धड़कन यौवन की।

ख़त्म हुये आँगन, चौपाल ओसारे
बालकनी में गोरी केश सँवारे
हैं लैला जी स्कूटी-आसीन, घटी महिमा ऊँटन की।

’मैं करता हूँ प्रेम तुम्हे’ है मुख में
मन अटका है किन्तु अन्य से सुख में
हुई बहुत प्राचीन, कल्पना विरह-मिलन की।

मोबाइल ले लिया यक्ष ने जबसे
करती एसेमेस मेल यक्षिणी तबसे
बादल उद्यमहीन, बही धारा अँसुअन की।

जायें क्यों खजुराहो और एलोरा
प्रभुकृत जीवित प्रतिमायें चहुँओरा
दीर्घ वस्त्र कौपीन, व्यवस्था नवप्रचलन की।

कवि कुछ रचो नवीन, वीन झंकृत हो मन की।

अमित (२७-०४-०९)
मॉल = Mall, एफ़ेम = FM, एसेमेस = SMS, मेल = Mail, वीन = वीणा

Saturday, April 25, 2009

ग़ज़ल - मैं खड़ा बीच मझधार किनारे क्या कर लेंगे

मैं खड़ा बीच मझधार किनारे क्या कर लेंगे
मैने छोड़ी पतवार सहारे क्या कर लेंगे

तुम क़िस्मत-क़िस्मत करो जियो याचक बन कर
मैं चला क्षितिज के पार सितारे क्या कर लेंगे

तुम दिखलाते हो राह मुझे मंजिल की,
मैं आँखों से लाचार इशारे क्या कर लेंगे

हम ने जो कुछ भी कहा वही कर बैठे
जो सोचें सौ-सौ बार बेचारे क्या कर लेंगे

ना समझ कहोगे तुम मुझको मालूम है
ये फ़तवे हैं बेकार तुम्हारे क्या कर लेंगे

Thursday, April 16, 2009

गीत - रात देखो जा रही है।

भय कहीं विश्राम लेने जा रहा है
भोर का तारा नज़र बस आ रहा है
और अब पहली किरन मुस्का रही है
रात देखो जा रही है।

फड़फड़ाये पंख पीपल के
कि पत्ते पक्षियों के
झुण्ड वापस जा रहे हैं
नगर के उपरक्षियों के
ठण्ड से सिकुड़ी हवा
मानो पुनः गति पा रही है।
रात देखो जा रही है।

मौन था अभिसार फिर भी
मुखर है अभिव्यक्ति उसकी
जागरण के चिह्न आँखों में
लटें हैं मुक्त जिसकी
भींचती रसबिम्ब
आँगन पार करती आ रही है।
रात देखो जा रही है।

यंत्र-चालित से उठे हैं हाथ
यह क्या? पार्श्व खाली
कहा दर्पण ने मिटा लो
वक्त्र से सिन्दूर, लाली
रात्रि के मधुपान की
स्मृति हृदय सहला रही है।
रात देखो जा रही है।

फिर उड़ेला चिमनियों ने
ज़हर सा वातावरण में
हुआ कोलाहल चतुर्दिक
उठो, भागो चलो रण में
स्वप्न-समिधा ,
जीविका की वेदिका सुलगा रही है।
रात देखो जा रही है।
- अमित

Sunday, April 12, 2009

ग़ज़ल - उम्र भर का ये कारोबार रहा।

उम्र भर का ये कारोबार रहा।
इक इशारे का इन्तेजार रहा।

जान आख़िर को किस तरह बचती
जो था क़ातिल वही क़रार रहा।

उसने वादा नहीं किया फिर भी
उसकी सूरत पे ऐतिबार रहा।

जितने सच बोलने पड़े मुझको
उतने झूँठों का कर्जदार रहा।

मुझको मौका नहीं मिला कोई
मैं यक़ीनन ईमानदार रहा।

जिसका ख़ंजर तुम्हारी पीठ में है
अब तलक वो तुम्हारा यार रहा।

फ़ैसला क़त्ल का दो टूक हुआ
ख़ुद ही मक़्तूल जिम्मेदार रहा।

सोच लेना गु़रूर से पहले
वक़्त पर किसका इख़्तियार रहा।

जब्त से काम लिया फिर भीअमित
चेहरा कमबख़्त इश्तेहार रहा।
- अमित

Saturday, April 11, 2009

गीत - अपने-अपने अंधकार में जीते हैं।

अपने दोष दूसरों के सिर पर मढ़ कर
रोज घूँट-दो-घूँट दम्भ के पीते हैं।
ज्योति-पुंज के चिह्न टाँगकर दरवाजों पर
अपने-अपने अंधकार में जीते हैं।

प्रायः तन को ढकने में असमर्थ हुई,
कब की जर्जर हुई या कहें व्यर्थ हुई,
किन्तु मोह के आगे हम ऐसे हारे
रोज उसी चादर को बुनते सीते है।
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

जीवन एक पहेली है सबके आगे,
परिभाषाओं मे भी उग आते धागे,
निज मत की अनुशंसा में हैं व्यस्त सभी
सबके अपने साधन और सुभीते है।
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

महाबली भी यहाँ काल से छले गये,
विश्वविजयआकांक्षी कितने चले गये
किन्तु आज भी रक्त रक्त का प्यासा है,
शायद हम अनुभव के फल से रीते हैं
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।

प्रवृत्तियाँ शिक्षा देतीं निर्लोभन की
जोंक बताती बात रक्त के अवगुन की.
असमंजस मे निर्विकार हो बैठे ज्यों
गीता के उपदेश हमी पर बीते हैं।
अपने-अपने अन्धकार में जीते है।


अमित (१९९०)

Monday, April 6, 2009

मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।



मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।

मुझे आती है इक भाषा कि जिसमें बोलता हूँ मैं
हृदय के स्राव को शब्दों के जल में घोलता हूँ मै
वो भाषा जिसमें तुतलाकर मैं पहली बार बोला था
जिसे सुनकर मेरी माँ के नयन में अश्रु डोला था
उठा कर बाँह में उसने मेरे मुखड़े को चूमा था
सुनहरे स्वपन का इक सिलसिला आँखों में घूमा था
वो भाषा मेरे होंठों पर दुआ बन करके चिपकी है
वो किस्सा है, कहानी है, वो लोरी है, वो थपकी है
खुले आकाश में अपने परों को तोलती है वो

मेरी भाषा को सीमाओं की चकबन्दी नहीं आती
मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।

न वर्णों का समुच्चय है, न व्याकरणों की टोली है
मेरी भाषा, मेरे अन्तर के उद्‍गारों की बोली है
दृगों के मौन सम्भाषण में भी मुँह खोलता हूँ मैं
जहाँ होता है सन्नाटा, वहाँ भी बोलता हूँ मैं
ये पर्वत, वन, नदी, झरने इसी में वास लेते हैं
मृगादिक, वन्य पशु-पक्षी इसी में साँस लेते हैं
मेरी भाषा में बोले, आदिकवि, मिल्टन कि हों गेटे
वो ग़ालिब, संत तुलसी, मीर या बंगाल के बेटे
जगत की वेदनाओं से सहज संवाद करती है

मेरी भाषा को विश्वासों की पाबंदी नहीं आती
मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।


मुझे कुछ रोष है ऐसे स्वघोषित कलमकारों पर
इबारत जो नहीं पढ़्ते भविष्यत की दीवारों पर
जो बहते नीर को पोखरों-कुओं में बाँट  देते हैं
जो  अपने मत प्रवर्तन हेतु  खेमें    छाँट  लेते हैं
मुझे प्रतिबद्धता की कल्पना प्रतिबंन्ध लगती है
सॄजन के क्षेत्र में यह वर्जना की गन्ध लगती है
हृदय के भाव अनगढ़ हों तो सोंधे और सलोने हैं
किसी मत में जकड़ते ही ये बेदम से खिलौने हैं
विचारों के नये पुष्पों के सौरभ में नहाती है
मेरी भाषा को सिन्द्धान्तों की गुटबन्दी नहीं आती
मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती


- अमित
इस कविता को आप यू-ट्यूब पर यहाँ सुन सकते हैं



Saturday, April 4, 2009

कुछ सामयिक मुक्तक

कुछ सामयिक मुक्तक

()
पानी - पानी रंग हो गये।
मौसम सब बदरंग हो गये।
मुझसे तुम्हे जोड़ते थे जो,
वो गलियारे तंग हो गये।

()
सच पर इतने फन्दे क्यूँ हैं।
झूठे गोरखधन्धे क्यूँ है।
धृतराष्ट्रों के भी संजय हैं,
आँखों वाले अंधे क्यूँ हैं।

()
सच कहने से डरते क्यूँ हो।
घुट-घुट आहें भरते क्य़ूँ हो।
कौन मरा दो बार आज तक,
रोज-रोज फिर मरते क्यूँ हो।

()
मेरे घर बदहाली क्यूँ है।
सर से सटी दुनाली क्यूँ है।
वादों की फसलें अच्छी हैं,
थाली फिर भी खाली क्यूँ है।

()
कुत्ता अस्थि चबाता क्यूँ है।
हाकिम रिश्वत खाता क्यूँ।
कभी किसी ने पूँछा इनसे,
तू भी खा चिल्लाता क्यूँ है।

- अमित