Saturday, February 28, 2009

ग़ज़ल - याद का इक दिया सा जलता है।

याद का इक दिया सा जलता है।
लौ पकड़ने को दिल मचलता है।


ख़्वाब हो या कि हक़ीक़त दुनियाँ,
दम तो हर हाल में निकलता है।


वक़्त बेपीर है ये मान लिया,
आदमी ही कहाँ पिघलता है।


सरनिगूँ देख कर तुझे ऐ दोस्त,
मुझको अपना वजूद खलता है।


मौत के मुस्तकिल तकाजों में,
एक दिन और यूँ ही टलता है।


अर्श पर शम्स कमल कीचड़ में,
नासमझ देख करके खिलता है।


हमनें इस तरह निभाये रिस्ते,
जैसे कपडे़ कोई बदलता है।


कारवाँ जानें अब कहाँ पहुँचे,
हर कोई अपनी चाल चलता है।


उनके मतलब का रास्ता अक्सर,
मेरी मजबूरियों से मिलता है।


अपनी जिद छोड़ दू ’अमित’ लेकिन,
उनका तेवर कहाँ बदलता है।


- अमित


सरनिगूँ = सर झुका हुआ, लज्जित। मुस्तकिल = सतत। अर्श= आकाश। शम्स = सूर्य।

Wednesday, February 18, 2009

कभी - कभी










कभी - कभी जो नीति हमें चलना सिखलाती है।
कभी वही हमको इच्छित पथ से भटकाती है।

कभी - कभी मन का सूनापन अच्छा लगता है।
कभी - कभी सूनेपन से तबीयत घबराती है।

कभी - कभी हम भरी भीड़ मे रहे अकेले से,
कभी अकेले में यादों की भीड़ सताती है।

कभी - कभी मिलने की इच्छा पागल कर देती,
कभी - कभी मिल जाने पर तबीयत उकताती है।

कभी - कभी यूँ ही सोचा तत्काल हुआ करता,
कभी - कभी छोटी सी आशा उम्र बिताती है।

कभी - कभी हम ईश्वर के अत्यन्त कृतज्ञ हुये,
कभी - कभी उनके विवेक पर चिढ़ सी आती है।

कभी - कभी खुशियाँ ही मन को विचलित कर देतीं,
कभी - कभी मन की पीड़ा भी मन बहलाती है।

कभी - कभी वर्षों तक कोई गीत नहीं बनता।
कभी - कभी हर पंक्ति स्वयं कविता हो जाती है।

Saturday, February 7, 2009

चक्की

चक्की,
टनों गेहूँ चबानें के बाद भी,
मोटी नहीं होती,
बल्कि, घिस जाते हैं दाँत ही उसके।
मोटा होता है,
उसके पीसे पर जलन काटनें वाला
और भूँखों मरता है,
उसके दाँत सुधारने वाला।

-अमिताभ

Sunday, February 1, 2009

कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

गरल पिया जीवन भर जिसने, अमृत का रखवाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला ।

जीवन के झंझावतों से निशिदिन लड़ा अकेले,
सह कर देखे दुख कोई, जो महाप्राण ने झेले,
नहीं दीनता दिखलाई, था ऐसा साहस वाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

स्वर में स्वाभिमान का गर्जन, वाणी सरस्वती का नर्तन,
नई भंगिमा, नव अभिव्यंजन, छन्द-रुप-रस का परिवर्तन,
मत की परम्परा को जिसने तोड़ा वह मतवाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

रची भूमि जो उसने, उस पर फैला कुनबा सारा,
किन्तु किसी ने देखा क्या उस भिक्षुक को दोबारा,
कहाँ तोड़ती सड़क किनारे पत्थर अब वह बाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

अवसादों के क्षण में भी वह जन से कभी विरक्‍त नहीं था,
अपनी छवि की रक्षा के हित आत्ममुग्ध, अनुरक्‍त नहीं था,
था फक्कड़, जिसकी झोली में लाल करोड़ों वाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

तुलसी और राम दोनो के मन का कुशल चितेरा,
स्मृति में सरोज की जिसने अपना दर्द उकेरा,
क्षुद्र कुकुरमुत्‍ते को भी, सम्मान दिलाने वाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

करुणा करो दलित जन पर, माँगा था प्रभु से किसने,
बादल राग सुना कर हमको, मुग्ध किया था जिसने,
भिक्षुक है उदास, रोती है शिला कूटती बाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।