Tuesday, February 23, 2010

ग़ज़ल - एक मासूम से ख़त पर बवाल कितना था

एक मासूम से ख़त पर बवाल कितना था
उस हिमाकत का मुझे भी मलाल कितना था

मेरे हाथों पे उतर आई थी रंगत उसकी
सुर्ख़ चेहरे पे हया का गुलाल कितना था

मैं अगर हद से गुजर जाता तो मुज़रिम कहते
और बग़ावत का भी दिल में उबाल कितना था

काँच सा टूट गया कुछ मगर झनक न हुई
जुनूँ में भी हमें सबका ख़याल कितना था

हश्र यूँ मेरे सिवा जानता था हर कोई
मैं अपने हाल पे ख़ुद ही निहाल कितना था

आज भी एक पहेली है मेरे सिम्त 'अमित'
उस तबस्सुम की गिरह में सवाल कितना था

अमित
शब्दार्थ: मुक़द्दस हिलाल = पवित्र नया चाँद, तबस्सुम = मुस्कान

Friday, February 19, 2010

ग़ज़ल - बहुत सहज हो जाने के भी अपने खतरे हैं|

बहुत सहज हो जाने के भी अपने ख़तरे हैं
लोग समझने लगते हैं हम गूँगे-बहरे हैं

होरी को क्या पता नहीं, उसकी बदहाली से
काले ग्रेनाइट पर कितने हर्फ़ सुनहरे हैं

धड़क नहीं पाता मेरा दिल तेरी धड़कन पर
मंदिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारों के इतने पहरे हैं

पढ़-लिख कर मंत्री हो पाये, बिना पढ़े राजा
जाने कब से राजनीति के यही ककहरे हैं

निष्ठा को हर रोज़ परीक्षा देनी होती है
अविश्वास के घाव दिलों में इतने गहरे हैं

मैं रोया तो नहीं नम हुई हैं फिर भी आंखें
और किसी के आँसू इन पलकों पर ठहरे हैं

बौनो की आबादी में है कद पर पाबन्दी
उड़ने लायक सभी परिन्दो के पर कतरे हैं



अमित

Wednesday, February 10, 2010

गज़ल - इक लम्हा खु़शी के लिये दुनिया सफ़र में है (पुरानी)

१९८६-८७ में लिखी गयी गज़ल प्रेषित कर रहा हूँ|
इक लम्हा खु़शी के लिये दुनिया सफ़र में है
मालूम नहीं दर तेरा किस रहगुजर में है

मुरझा चुकी हैं खिल के तमन्नायें नामुराद
गोया हमारा दिल भी किसी तंग दर में है

मैं भी बुझूँगा एक दिन और तू भी आफ़ताब
फिर इतनी तपिश क्यूँ तेरी तिरछी नज़र में है

फ़ित्रत है एक जैसी सितारों की जमी की
इक जल रहे हैं दूसरी जलते शहर में है

ऐ तालिबाने-फ़िरक़ापरस्ती कभी तो सोच
ये आग फूँक देगी जो कुछ तेरे घर में है

हम आये मदावाये-दिलआज़ुर्दः को 'अमित'
इक वहशियाना भूक मिरे चाराग़र में है

अमित (१९८६)

तालिबाने-फ़िरक़ापरस्ती = साम्प्रदायिकता के विद्यार्थीगण। मदावाये-दिलआज़ुर्दः = दुखी हृदय के उपचार के लिये। चाराग़र=उपचारक, वैद्य।