Wednesday, January 26, 2011

मैं अजन्मा, जन्मदिन किसका मनाऊँ?


मैं अजन्मा,
जन्मदिन किसका मनाऊँ?


पंचभूतों के विरल संघात का?
क्षरित क्षण-क्षण हो रहे जलजात का?
दो दिनो के ठाट मृण्मय गात का
या जगत की वासना सहजात का?
किसे निज-अस्तित्त्व का
स्यन्दन बनाऊँ
मैं अजन्मा
जन्मदिन किसका मनाऊँ

किये होंगे जगत के अनगिनित फेरे
मिले होंगे वास के लाखों बसेरे 
हैं कहाँ वो पूर्व के अवशेष मेरे?
सर्वग्रासी हैं अदृश-पथ के अँधेरे
समय के किस बिन्दु पर
टीका लगाऊँ
मैं अजन्मा
जन्मदिन किसका मनाऊँ?

नित्य स्लथ होते हुये इस आवरण को
देखता हूँ शिथिल होते आचरण को
खोजता हूँ लुप्त से अन्तःकरण को
कहाँ पहुँचा! खोजता अपनी शरण को
क्या अभीप्सित है,
भ्रमित हूँ क्या बताऊँ?
मैं अजन्मा
जन्मदिन किसका मनाऊँ?

-अमित

Friday, January 7, 2011

ग़ज़ल - किसी को इतना न चाहो के बदग़ुमा हो जाय


किसी को इतना न चाहो के बदगुमाँ हो जाय
न लौ को इतना बढ़ाओ के वो धुआँ हो जाय

ग़र हो परवाज़ पे पहरा ज़ुबाँ पे पाबन्दी
तो फिर क़फ़स ही मेरा क्यों न आशियाँ हो जाय

न चुप ही गुज़रे न रोकर शबे-फ़िराक़ कटे
तू एक झलक दिखा कर जो बेनिशाँ हो जाय

लोग लेते हैं मेरा नाम तेरे नाम के साथ
कल ये अफ़वाह ही बढ़ कर न दास्ताँ हो जाय

ख़ुशमिज़ाजी भी तेरी मुझको डरा देती है 
तेरा मज़ाक रहे, मेरा इम्तेहाँ हो जाय

सितमशियार कई और हैं तुम्हारे सिवा
कहीं न दर्द मेरा, दर्दे-ज़ाविदाँ हो जाय

भीख में इश्क़ भी मुझको नहीं कुबूल 'अमित'
भले वो जाने-सुकूँ मुझसे सरगिराँ हो जाय

अमित

शब्दार्थ:  परवाज़ = उड़ान, क़फ़स = पिंजरा, शबे-फ़िराक़ = वियोग की रात, सितमशियार = अत्याचार करने वाला/वाले, दर्दे-ज़विदाँ = स्थाई दर्द जो मृत्यु के साथ ख़त्म होता है, जाने-सुकूँ = शान्ति प्रदान करने बाला प्रिय-पात्र, सरगिराँ = रुष्ट, नाख़ुश।

Saturday, January 1, 2011

नव-वर्ष २०११ मंगलमय हो!

नव-छन्द सजे नव-गीत रचें नव-बिम्ब सुसज्जित काव्य-कला
सब रागिनियाँ मनुहार करें नव-बीन गहें कर में विमला
नववर्ष प्रहर्ष प्रदायक हो जग-प्रीति सुनीति रहे सुफला
तन-ताप मिटे मन-मोद बढ़े नित कोष भरें घर में कमला
'अमित'