Wednesday, December 29, 2010

गीत - फिर क्यों मन में संशय तेरे!



फिर क्यों मन में संशय तेरे!

जब-जब दीप जलाये तूने

दूर हुये हैं घने अंधेरे
फिर क्यों मन में संशय तेरे!

स्वयं शीघ्र धीरज खोता है
क्रोध! कि ऐसा क्यों होता है
नियति नवाती शीश उसी को
जो सनिष्ठ इक टेक चले रे
फिर क्यों मन में संशय तेरे!

वीर पराजित हो सकते हैं
जय की आस नहीं तजते हैं
निश्प्रभ होकर डूबा सूरज 
तेजवन्त हो उगा सवेरे
फिर क्यों मन में संशय तेरे!

जग में ऐसा कौन भला है
जिस पर समय न वक्र चला है
धवल-वर्ण हिमकर को भी तो
ग्रस लेते हैं तम के घेरे
फिर क्यों मन मे संशय तेरे!

मान झूठ अपमान झूठ है
जीवन का अभिमान झूठ है
जग-असत्य की प्रत्यंचा पर
सायक हैं माया के प्रेरे
फिर क्यों मन में संशय तेरे!


--अमित

Sunday, December 26, 2010

गीत - सपनों को कल रात जलाया



सपनों को कल रात जलाया

हर करवट पर चुभते थे जो
घुटन  बढ़ाते घुटते  थे जो
मुझे पीसते पिसते  थे जो
रोते कभी सिसकते थे जो
मन पर भारी पत्थर रख कर
उन्हें विदा का शीश नवाया
सपनों को कल रात जलाया

सुबह राख़ से झाँक रहे थे
मुझ विस्मित को ताक रहे थे
मेरे मन को आँक रहे रहे थे
मन की दरकन टाँक रहे थे
उनकी मन्दस्मित रेखा से 
मन ही मन मैं बहुत लजाया
सपनो को कल रात जलाया

सपनों में संवाद छिड़ा है
और बीच में मौन खड़ा है
जीवन बड़ा कि स्वप्न बड़ा है
तर्कों का इक बोझ पड़ा है
स्वप्न-प्रलोभन में आकर के
मैंने ही ख़ुद को भरमाया
सपनों को कल रात जलाया

स्वप्नों से अब बोल रहा हूँ
मन की पीड़ा खोल रहा हूँ
अच्छे शब्द टटोल रहा हू
हर अवसर को तोल रहा हूँ
स्वप्नों मुझे छोड़ दो भाई
आर्तनाद कर मैं चिल्लाया
सपनो को कल रात जलाया

लेगा कोई ज़िम्मेदारी?
स्वप्नों की दे रहा सुपारी
मैंने तो ये बाज़ी हारी
जीत गया फिर वक़्त शिकारी
रक्तबीज के वंशज स्वप्नों
मुझको ही क्यों लक्ष्य बनाया
सपनों को कल रात जलाया

--अमित