Wednesday, January 27, 2016

नवगीत - माँ तुम अपने साथ ले गयी मेरा बचपन भी।

माँ तुम अपने साथ ले गयी
मेरा बचपन भी।

जब तक थीं तुम
मुझमें मेरा
शिशु भी जीवित था
वात्सल्य से सिंचित
मन का
बिरवा पुष्पित था
रंग-गंघ से हीन हो गए
रोली-चन्दन भी।


झिड़की, डांट-डपट
भी तुम थी
तुम थी रोषमयी
सहज स्नेह सलिला
भी तुम थी
तुम थी तोषमयी
सुधियाँ दुहराती हैं खट्टी-
मीठी अनबन भी।


मुझे कष्ट में देख
स्वयं का
दुःख तुम भूल गयी
कितने देवालय पूजे
घंटो पर
झूल गयी
रोम-रोम ऋण से सिंचित है
उपकृत जीवन भी।


-अमित

नवगीत - कैसी घिरीं घटायें।

कैसी घिरीं घटायें नभ पर
कैसी घिरी घटायें


धूप कर रही धींगा-मस्ती
छायाओं से गरमी रिसती
आँचल का अपहरण कर रही
हैं मनचली हवाएं।
कैसी घिरी घटायें।


हंस तज गए मानसरोवर
मत्स्यों का है जीना दूभर
घडियालों के झुण्ड किनारों
पर डूबें उतरायें।
कैसी घिरी घटायें।


पर्वत-पर्वत कोलाहल है
सागर-सागर बड़वानल है
धरती का सुख होम कर रहीं
बारूदी समिधाएँ।
कैसी घिरी घटायें।


कुयें, नदी, नलकूप पियासे
बरखा भूल गयी चौमासे
मन का पतझर रहे अछूता
ऋतुएँ आयें जायें।
कैसी घिरी घटायें।


सूख गया आँखों का पानी
रिश्तों पर छाई वीरानी
तनिक लाभ के लिए टूट जातीं
नैतिक सीमाएँ।
कैसी घिरी घटायें।


-अमित

नवगीत - सुन रहे हो बज रहा है मृत्यु का संगीत!

सुन रहे हो
बज रहा है मृत्यु का संगीत!

मृत्यु तन की ही नहीं है
क्षणिक जीवन की नहीं है
मर गये विश्वास कितने
पर क्षुधा रीती नहीं है
रुग्ण-नैतिकता समर्थित
आचरण की जीत
सुन रहे हो.....

ताल पर हैं पद थिरकते
जब कोई निष्ठा मरी है
मुखर होता हास्य, जब भी
आँख की लज्जा मरी है
गर्व का पाखण्ड करते
दिवस जाते बीत
सुन रहे हो....


प्रीति के अनुबन्ध हो या
मधुनिशा के छन्द हो या
हों युगल एकान्त के क्षण
स्वप्न-खचित प्रबन्ध हों या
छद्म से संहार करती
स्वयं है सुपुनीत
सुन रहे हो....


पहन कर नर-मुण्ड माला
नाचती जैसे कपाला
हँसी कितने मानवों के
लिये बनती मृत्युशाला
वर्तमानों की चिता पर
मुदित गाती गीत
सुन रहे हो.....


-अमित

नवगीत - उसी पुरानी हाँड़ी में, अब कब तक भात पकायेंगे!


उसी पुरानी हाँड़ी में
अब कब तक भात पकायेंगे!

युग बदला निर्मितियाँ बदलीं
सृजन और स्वीकृतियाँ बदलीं
बदल गये जीवन के मानक
यज्ञ और आहुतियाँ बदलीं
पुरावशेषों को बटोर कर
कब तक भूत जगायेंगे!


राजा, भाँट, विदूषक बदले
दरबारी, सन्देशक बदले
बदल गये तात्पर्य अर्थ के
मिथको के सँग रूपक बदले
सूप पीट कर कितने दिन तक
चिर दारिद्र्य भगायेंगे?


गोरी, पनघट, घूँघट बदले
सिकहर, चूल्हे, दीवट बदले
समय-रेत के परिवर्तन से
नदियों ने अपने तट बदले
विगत हो चुके स्वर्ण काल पर
कब तक अश्रु बहायेंगे?


हर प्रभात का रवि नवीन है
अम्बर की हर छवि नवीन है
चिर-नवीन अनुभूति गीति की
युग-जीवी, जो कवि, नवीन है
जीर्ण तन्तुओं को बुनकर क्या
वस्त्र नवीन बनायेंगे?


अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’