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हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।
गलित रूढियों के दल-दल में
डूबा था जग सारा
मानस का उपहार ललित देकर
तब हमे उबारा
लोकनीति, मर्यादा रक्षण
काटे जो भवबन्धन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।
विनययुक्त दी विनयपत्रिका
गीतावलि प्रभुलीला
पूर्वपीठिका मानस की ज्यौं
कवितावली सुशीला
स्वयं तिलक लगवाने आये थे
तुमसे रघुनन्दन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।
रामचरित लीला का तुमने
प्रचलन किया जगत में
शैव और वैष्णव भक्तों को
किया एक पंगत में
उपकृत आज समाज तुम्हारा
करता है अभिनन्दन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।
गूढ़ दार्शनिक तत्वों को
जब सरल शब्द में ढाला
इक भदेस भाषा ने पाया
अमृतरस का प्याला
घूम रहा है धर्मध्वजा लेकर
अब तक वह स्यंदन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।
माता-पिता विहीन, तिरष्कृत
बाल्यकाल कठिनाई
गुरु का कृपा प्रसाद, ज्ञान के
साथ काव्य निपुनाई
जिसे किया स्पर्श
सुवासित हुआ कि जैसे चंदन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।
रे कंजूस भला वर्षा में है तेरा क्या घाटा
कल बादल को कस कर डाँटा
आज सवरे इधर-उधर कुछ धुँधले बादल आये
कुछ फुहार के जैसी छोटी-छोटी बूँदे लाये
मैंने कहा कि निकले हो क्या करने सैर सपाटा?
उनको मैंने फिर से डाँटा
बाद दोपहर घिर आये कुछ बादल काले-काले
गरजे-तड़के बहुत देर पर खुले न उनके ताले
हुआ क्रोध से लाल खींच कर मारा एक झपाटा
अबकी बड़ी जोर से डाँटा
और शाम होते-होते फिर आई बुद्धि ठिकाने
सचमुच भीग गया मैं नभ पर लगे मेघ घहराने
आँख खुली, पत्नी गुस्से में, क्यों मारा था चांटा?
अब मैं खींच गया सन्नाटा
आँखें मल कर वस्तुस्थिति को समझा और बताया
अनावृष्टि ने मन पर मेरे था अधिकार जमाया
किसी तरह समझाकर मैंने पत्नी का भ्रम काटा
उनका ज्वार हुआ तब भाटा
कल बादल को कस कर डाँटा।
फ़िक्र आदत में ढल गई होगी
अब तबीयत सम्हल गई होगी
गो हवादिस नहीं रुके होंगे
उनकी सूरत बदल गई होगी
जान कर सच नहीं कहा मैंने
बात मुँह से निकल गई होगी
मैं कहाँ उस गली में जाता हूँ
है तमन्ना मचल गई होगी
जिसमें किस्मत बुलन्द होनी थी
वो घड़ी फिर से टल गई होगी
खा़के-माजी की दबी चिंगारी
उसकी आहट से जल गई होगी
खता मुआफ़ के मुश्ताक़ नजर
बेइरादा फ़िसल गई होगी
मुन्तजिर मुझसे अधिक थी आँखें
बूँद बरबस निकल गई होगी
नाम गुम हो गये हैं खत से 'अमित'
उनको स्याही निगल गई होगी।
-अमित
मुश्ताक़ = उत्सुक, मुन्तजिर= प्रतीक्षारत, हवादिस= हादसा का बहुवचन
Mob:
व्याप्त है विपुल हर्ष
कविता कोश ने पूर्ण किये तीन वर्ष
कविता का यह महासागर
बनने को उद्यत है
हिन्दी काव्य का विश्वकोश।
वह दिन दिखता है मुझे
हस्तामलक समान
जब कविता कोश में होगा
काव्य की हर जिज्ञासा का समाधान।
बधाई! उन सभी को
जिनके प्रयत्नो का सुफल
हुआ मूर्तिमान।
उनको है नमन, उनकी वन्दना
उनका सारस्वत सम्मान
बहुत कुछ किया आपने पर
बहुत कुछ अब भी है शेष
जिसके लिये हम सभी की
शुभकामानायें हैं अशेष
इस महायज्ञ में हम भी सहभागी हैं
समिधा और हविस्य लेकर
जितनी जिसकी है सामर्थ्य सर्वस्व लेकर
हमारी मंगल कामनायें!
एक दिन हम कविता कोश को
हिन्दी-काव्य का विश्वकोश बनायें
सादर
अमित
Mob: