Monday, December 17, 2012

ग़ज़ल- ख़्वाब ही था ज़िन्दगी कितनी सहल हो जायेगी



ख़्वाब ही था ज़िन्दगी कितनी सहल हो जायेगी
तुम जो गाओगे रुबाई भी ग़ज़ल हो जायेगी

इतने आईनों से गुज़रे हैं यक़ीं होता नहीं
अज़नबी सी एकदिन अपनी शकल हो जायेगी

मर्हले ऐसे भी आयेंगे नहीं मालूम था
उम्र भर की होशियारी बेअमल हो जायेगी

है बहुत मा’कूल फिर भी शक़ है मौसम पर मुझे
तज्रबा है अन्त में ग़ारत फ़सल हो जायेगी

साँस की क़श्ती ख़ुद अपना बोझ सह पाती नहीं
कोई दिन होगा कि हस्ती बेदखल हो जायेगी

- अमित

Tuesday, December 11, 2012

ग़ज़ल - दिल मुसाफ़िर ही रहा सूये-सफ़र आज भी है



दिल मुसाफ़िर ही रहा सूये-सफ़र आज भी है
हाँ! तसव्वुर में मगर पुख़्ता सा घर आज भी है

कितने ख्वाबों की बुनावट थी धनुक सी फैली
कूये-माज़ी में धड़कता वो शहर आज भी है

बाद मुद्दत के मिले, फिर भी अदावत न गयी
लफ़्जे-शीरीं में वो पोशीदा ज़हर आज भी है

नाम हमने  जो अँगूठी से लिखे थे मिलकर
ग़ुम गये हैं मगर ज़िन्दा वो शज़र आज भी है

अब मैं मासूम शिकायात पे हँसता तो नहीं
पर वो गुस्से भरी नज़रों का कहर आज भी है

-अमित

शब्दार्थ: सूये-सफ़र - यात्रा की ओर, तसव्वुर - कल्पना, कूये-माज़ी - अतीत की गली, लफ़्जे-शीरीं - भीठे शब्द, पोशीदा - छिपाहुआ 
चित्र - गूगल से साभार।

Friday, December 7, 2012

हास्य ग़ज़ल - शहर मुझको तेरे सारे मुहल्ले याद आते हैं।



शहर मुझको तेरे सारे मुहल्ले याद आ्ते हैं
दुकाँ पर चाय की बैठे निठल्ले याद आते हैं

म्यूनिसपैलिटी के बेरोशन चराग़ों की कसम मुझको
उठाईगीर जेबकतरे चिबिल्ले याद आते हैं

तबेलों और पिगरी फार्म का अधिकार पार्कों पर
खुजाती तन मिसेज डॉग्गी औऽ पिल्ले याद आते हैं

मैं हाथी पार्क के हाथी पे रख कर हाथ कहता हूँ
नवोदित प्रेम के कितने ही छल्ले याद आते हैं

वो इन्वर्टर का अन्तिम साँस लेकर बन्द हो जाना
जब आई रात में बिजली तो हल्ले याद आते हैं

सड़क के उत्खनन को भूल से यदि भूल भी जाऊँ 
तो टूटे दाँत और माथे के गुल्ले याद आते हैं

गुज़रता है कभी जब काफ़िला नव-कर्णधारों का
मुझे सर्कस के जोकर से पुछल्ले याद आते हैं

सिविल लाइन्स में है मॉल-ओ-मल्टीप्लेक्स की दुनियाँ
के दिन ढलते खिलीबाँछों के कल्ले याद आते हैं

-अमित

चित्र - गूगल से साभार

Tuesday, December 4, 2012

गीत - आकुल हो तुम बाँह पसारे



आकुल हो तुम बाँह पसारे
किन्तु देहरी पर रुक जाते
असमंजस में पाँव तुम्हारे

अवहेलना जगत की करता
है, मन का व्याकरण निराला
किन्तु रीतियों की वेदी पर
जलते स्वप्न विहँसती ज्वाला
सब कुछ धुँधला-धुँधला दिखता
नयन-नीर की नदी किनारे
आकुल हो तुम बाँह पसारे

समझौतों में जीते-जीते
मरुथल होती हृद्‌-फुलवारी
मृदुजल का यदि स्रोत मिले तो
विस्मय करती दुनिया सारी
शुष्क काष्ठ पूजित होते हैं
काटे जाते हरे जवारे
आकुल हो तुम बाँह पसारे

पीड़ा, घुटन, असंतोषों को
हँस कर सह लेना वाँछित है
मन के अविकल भाव प्रदर्शन
की प्रत्येक कला लाँछित है
नियति बता कर चुप करने को
तत्पर हैं उपदेशक सारे
आकुल हो तुम बाँह पसारे

जड़ता का व्यामोह तोड़ना
प्रायः यहाँ असम्भव सा है
लहू-लुहान पंख हैं फिर भी
पिंजरों का अभिमान सुआ है
मुक्ति-कामना असह हुई तो
पहुँचा देती संसृति पारे
आकुल हो तुम बाँह पसारे

-अमित