अपनी - अपनी सलीब ढोता है
आदमी कब किसी का होता है
है ख़ुदाई-निज़ाम दुनियाँ का
काटता है वही जो बोता है
जाने वाले सुकून से होंगे
क्यों नयन व्यर्थ में भिगोता है
खेल दिलचस्प औ तिलिस्मी है
कोई हँसता है कोई रोता है
सब यहीं छोड़ के जाने वाला
झूठ पाता है झूठ खोता है
मैं भी तूफाँ का हौसला देखूँ
वो डुबो ले अगर डुबोता है
हुआ जबसे मुरीदे-यार ’अमित’
रात जगता है दिन में सोता है
अमित(३०-०४-०९)
सामुदायिक बिस्तर (कम्युनिटी बेड)
13 years ago
3 comments:
वाह अमित जी बहुत ख़ूब
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चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
मैं भी तूफाँ का हौसला देखूँ
वो डुबो ले अगर डुबोता है
बहुत अच्छे अमित जी। वाह। एक तुकबंदी मेरी ओर से भी-
चाल जम्हूरियत की देखी टेढ़ी।
आदमी को बैल बनाकर जोता है।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत ही अच्छी रचना....!
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