Tuesday, May 19, 2009

ग़ज़ल - किसी को घर नहीं देता

किसी को महल देता है किसी को घर नहीं देता
विधाता! इन सवालों का कोई उत्तर नहीं देता

जिन्हे निद्रा नहीं आती पडे़ हैं नर्म गद्दों पर
जो थक चूर हैं श्रम से उन्हे बिस्तर नहीं देता

ये कैसा कर्म जिसका पीढ़ियाँ भुगतान करती हैं
ये क्या मज़हब है जो सबको सही अवसर नहीं देता

तुम्हारी सृष्टि के कितने सुमन भूखे औऽ प्यासे हैं
दयानिधि! इनके प्यालों को कभी क्यों भर नहीं देता

मुझे विश्वास पूरा है, तेरी ताकत औऽ हस्ती पर
तू क्यों इक बार सबको इक बराबर कर नहीं देता


अमित (१९/०५/०९)

6 comments:

Himanshu Pandey said...

"मुझे विश्वास पूरा है, तेरी ताकत औऽ हस्ती पर
तू क्यों इक बार सबको इक बराबर कर नहीं देता"

मुग्ध हूँ, और सम्मोहित भी । बहुत कुछ कहना चाहता हूँ,पर चुप भी रहना चाहता हूँ इन पंक्तियों को पढ़कर । धन्यवाद ।

शारदा अरोरा said...

बहुत अच्छे , हाँ कोई तो कारण होगा |

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत बढिया !

शिकायत ये है तुझसे ऊपर वाले कि
जब भोगना हमें ही है सबके कर्मो का,
तो इससे भी बदत्तर क्यों नहीं देता ???

रंजना said...

Waah !!!

Bahut bahut sundar gazal...

Gazal kya ise prarthna kahungi....jisme sabke sukh ka bhaav nihit hai....

वीनस केसरी said...

मुझे विश्वास पूरा है, तेरी ताकत औऽ हस्ती पर
तू क्यों इक बार सबको इक बराबर कर नहीं देता

सुन्दर गजल
मक्ता बहुत पसंद आया

वीनस केसरी

नीरज गोस्वामी said...

ये कैसा कर्म जिसका पीढ़ियाँ भुगतान करती हैं
ये क्या मज़हब है जो सबको सही अवसर नहीं देता
ग़ज़ब का शेर...पूरी ग़ज़ल की बेहतरीन है...हिंदी के शब्द इतनी अच्छी तरह प्रयोग किये हैं की कहीं से भी भारती के नहीं लगते...बहुत खूब याने बहुत ही खूब जनाब.
नीरज