Saturday, November 14, 2009

ग़ज़ल - मुझको इंकार आ गया शायद

एक पुरानी ग़ज़ल

उनको अब प्यार आ गया शायद
मुझको इंकार आ गया शायद

एक बेचैन सी ख़मोशी है
बक्ते-बीमार आ गया शायद

कुछ चहल-पलह है ख़ाकी-ख़ाकी
कोई त्योहार आ गया शायद

होश गु़म और लुटे-लुटे चेहरे
कोई बाज़ार आ गया शायद

खून की बू सी अभी आई है
अपना अख़बार आ गया शायद


अमित (१९९४)
Mob:

4 comments:

निर्मला कपिला said...

खून की बू सी अभी आई है
अपना अख़बार आ गया शाय
पूरी गज़ल ही लाजवाब है बधाई

श्रद्धा जैन said...

खून की बू सी अभी आई है
अपना अख़बार आ गया शायद


waah waah aise kamaal ki baat aap hi kah sakte ho
bahut khoob

अभिषेक आर्जव said...

समसामयिक यथार्थ का स्पष्ट व बेलाग चित्र खींचती एक सुन्दर गज़ल !

Dr. Amar Jyoti said...

'........
वक़्त-ए-बीमार आ गया शायद'
'……………
कोई त्योहार आ गया शायद'
'………………………
कोई बाज़ार आ गया शायद'
'………………………
अपना अख़बार आ गया शायद'
क्या कहूं! हर शेर लाजवाब!, बेहतरीन!