माया विस्तीर्ण जगत की
छल की प्रपंच की छाया
प्रतिविम्ब न ठहरे क्षण भर
हिलती दर्पण की काया
कुछ सघन निराशा के पल
सुधियों से निज संघर्षण
हम समर छोडते फिरते
पर पीछे पड़ जाते रण
विश्वास-विटप उन्मूलित
कामना-कलित झंझा से
अंकुर-अभिलाषा फिर भी
क्यों भ्रूणहीन बंझा से
जैसे प्रवाल कोटर में
मत्स्या के चंचल फेरे
कुछ ध्वनियाँ आती-जाती
रहतीं मस्तके में मेरे
शीशे के नग को पहना
हीरक-मुद्रिका समझ कर
पर वह भी आत्म-विमोहित
जा निकला दूर छिटक कर
अनु्गूँज उठा करती है
प्रायः मानस-तलघर में
कुछ सघन तरंगे आकर
छा जातीं विश्वंकर में
चंचल मन बैठ न पाये
रख धैर्य-शिला पर आसन
उद्धत इंद्रियाँ तोड़तीं
मर्यादा का अनुशासन
अद्भुत रहस्य संकुल सा
मानव मन अगम पहेली
इच्छायें चपल नटी सी
करती रहतीं अठखेलीक्रमशः...
अमित
शब्दार्थ: विश्वंकर = आँख
सामुदायिक बिस्तर (कम्युनिटी बेड)
13 years ago
3 comments:
जैसे प्रवाल कोटर में
मत्स्या के चंचल फेरे
कुछ ध्वनियाँ आती-जाती
रहतीं मस्तके में मेरे
मन की कशमक्श का सुन्दर चित्रण । शुभकामनायें
ये खंडकाव्य लिखने की शुरुआत है या महाकाव्य की। जो भी है अगर लिख लिया है तो मुझे मेल कीजिएगा शुरुआत अच्छी है।
bahut sundar likhaa bhaai aapne..thanks for sharing..
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