Thursday, August 11, 2011

नवगीत - गाँव की बदल गई है भोर



कोयल की कूकों में शामिल है ट्रैक्टर का शोर
धान-रोपाई के गीतों की तान हुई कमजोर
गाँव की बदल गई है भोर।

कहाँ गये सावन के झूले औऽ कजरी के गीत
मन के भोले उल्लासों पर है टीवी की जीत
इतने चाँद उगे हर घर में चकरा गया चकोर

समाचार-पत्रों में देखा बीती नागपच‌इयाँ
गुड़िया ताल रंगीले-डण्डे कहाँ गईं खजुल‌इयाँ
दंगल गुप्प अखाड़े सूने बाग न कोई मोर

दरवाजे पर गाय न गोरू भले खड़ी हो कार
कीचड़-माटी कौन लपेटे जब चंगा व्यौपार
खेतों-खलिहानों में उगते मॉल और स्टोर

अमित
शब्दार्थ: खजुल‍इयाँ = जरई, जवारे|



2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर पंक्तियाँ वर्तमान को दर्शाती हुयीं।

डॅा. व्योम said...

गाँवों की बदलती प्रकृति पर बहुत सुन्दर नवगीत है।
www.navgeet.blogspot.com