Thursday, May 10, 2012

ग़ज़ल - सुन रहा हूँ इसलिये उल्लू बनाना चाहते हैं



व्यर्थ की संवेदनाओं से डराना चाहते हैं
सुन रहा हूँ इसलिये उल्लू बनाना चाहते हैं

मेरे जीवन की समस्याओं के साये में कहीं
अपने कुत्तों के लिये भी अशियाना चाहते हैं

धूप से नज़रे चुराते हैं पसीनों के अमीर
किसके मुस्तकबिल को फूलों से सजाना चाहते हैं

मेरे क़तरों की बदौलत जिनकी कोठी है बुलन्द
वक़्त पर मेरे ही पीछे सिर छुपाना चाहते हैं

कितने बेमानी से लगते हैं वो नारे दिल-फ़रेब
कितनी बेशर्मी से वो परचम उठाना चाहते हैं

-अमित

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुधा लोग सुन लेने वालों को बेवकूफ ही समझते हैं।

नीरज द्विवेदी said...

बहुत तीखे और सार्थक व्यंग्य, काश ये उन्हे भी तीखे लगें जिनके लिए किए गए हैं।
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