Tuesday, December 11, 2012

ग़ज़ल - दिल मुसाफ़िर ही रहा सूये-सफ़र आज भी है



दिल मुसाफ़िर ही रहा सूये-सफ़र आज भी है
हाँ! तसव्वुर में मगर पुख़्ता सा घर आज भी है

कितने ख्वाबों की बुनावट थी धनुक सी फैली
कूये-माज़ी में धड़कता वो शहर आज भी है

बाद मुद्दत के मिले, फिर भी अदावत न गयी
लफ़्जे-शीरीं में वो पोशीदा ज़हर आज भी है

नाम हमने  जो अँगूठी से लिखे थे मिलकर
ग़ुम गये हैं मगर ज़िन्दा वो शज़र आज भी है

अब मैं मासूम शिकायात पे हँसता तो नहीं
पर वो गुस्से भरी नज़रों का कहर आज भी है

-अमित

शब्दार्थ: सूये-सफ़र - यात्रा की ओर, तसव्वुर - कल्पना, कूये-माज़ी - अतीत की गली, लफ़्जे-शीरीं - भीठे शब्द, पोशीदा - छिपाहुआ 
चित्र - गूगल से साभार।

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

बेहतरीन रचना...आज भी है...