Wednesday, January 27, 2016

नवगीत - उसी पुरानी हाँड़ी में, अब कब तक भात पकायेंगे!


उसी पुरानी हाँड़ी में
अब कब तक भात पकायेंगे!

युग बदला निर्मितियाँ बदलीं
सृजन और स्वीकृतियाँ बदलीं
बदल गये जीवन के मानक
यज्ञ और आहुतियाँ बदलीं
पुरावशेषों को बटोर कर
कब तक भूत जगायेंगे!


राजा, भाँट, विदूषक बदले
दरबारी, सन्देशक बदले
बदल गये तात्पर्य अर्थ के
मिथको के सँग रूपक बदले
सूप पीट कर कितने दिन तक
चिर दारिद्र्य भगायेंगे?


गोरी, पनघट, घूँघट बदले
सिकहर, चूल्हे, दीवट बदले
समय-रेत के परिवर्तन से
नदियों ने अपने तट बदले
विगत हो चुके स्वर्ण काल पर
कब तक अश्रु बहायेंगे?


हर प्रभात का रवि नवीन है
अम्बर की हर छवि नवीन है
चिर-नवीन अनुभूति गीति की
युग-जीवी, जो कवि, नवीन है
जीर्ण तन्तुओं को बुनकर क्या
वस्त्र नवीन बनायेंगे?


अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

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