Friday, June 26, 2009

ग़ज़ल तरही - साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है

इल्तिजा उसकी मुहब्बत में सनी होती है
साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है

यूँ कमानी की तरह भौंह तनी होती है
नज़र पड़ते ही कहीं आगजनी होती है

अपना ही अक्स नज़र आती है अक्सर मुझको
वो हर इक चीज जो मिट्टी की बनी होती है

सौदा-ए-इश्क़ का दस्तूर यही है शायद
माल लुट जाये है तब आमदनी होती है

मैं पयाले को कई बार लबों तक लाया
क्या करूँ जाम की क़िस्मत से ठनी होती है

इतने अरमानो की गठरी लिये फिरते हो ’अमित’
उम्र इंसान की आख़िर कितनी होती है


- अमित

3 comments:

Udan Tashtari said...

सही है!

नीरज गोस्वामी said...

अपना ही अक्स नज़र आती है अक्सर मुझको
वो हर इक चीज जो मिट्टी की बनी होती है

अमित जी एक बहुत असरदार ग़ज़ल के लिए आपकी जितनी तारीफ की जाये कम है. सारे शेर बेहतरीन हैं...लिखते रहें.
नीरज

ओम आर्य said...

इतने अरमानो की गठरी लिये फिरते हो ’अमित’
उम्र इंसान की आख़िर कितनी होती है

ek ek panktiyan kabiletarif hai.........atiutam