Tuesday, September 1, 2009

कविता - वास्तविकता

ड्राइंग रूम में अपना एक चित्र लगाया है
जो मुझे आकर्षक दिखाता है
पर मेरे जैसा नहीं दिखता
एक तख्ती दरवाजे पर
उपाधियां दर्शाती है, मेरी
जिन्हें मैं जानता हूँ कि कागजी हैं
और ओढे रहता हूँ एक गंभीरता
कि लोग बहुत नजदीक न आ जाँय
जान लें मेरी वास्तविकता
लेकिन कभी-कभी सोचता हूँ
कि देंखूं
इन सबके बिना
मैं कैसा लगता हूँ|

2 comments:

अपूर्व said...

बहुत गहरी बात..हम सभी कोई न कोई लबादा ओढ़े ही रहते हैं..बधाई

Udan Tashtari said...

बेहतरीन!