जलती हैं हमारी हड्डियाँ
समिधा बन कर
हमारा ही श्रम बनता है
हविष्य
और प्रज्ज्वलित करते हैं उसे
हमारे ही श्रम-बिन्दु
घृत बन कर
पड़ता है, हमारे समर्पण का तुलसीदल
भोग की हर वस्तु में
लेकिन!
प्रसाद की कतार में
होते हैं सबसे बाद में
पहुँचते-पहुँचते जहाँ तक
हो जाता है रिक्त
थाल प्रसाद का।
अमित
सामुदायिक बिस्तर (कम्युनिटी बेड)
13 years ago
2 comments:
achchhee rachanaa
डा.रमा द्विवेदी....
भावपूर्ण रचना....बधाई..
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