कभी एक मुक्तक श्रृंगार का लिखा था| बाद में परिवेश बदला सन्दर्भ बदले तो सौंदर्य के प्रतिमान भी बदले| पहले मुक्तक में शास्त्रीय अलंकरण हैं| बाद में इसे मैंने आज के परिदृश्य में रखना चाहा तो इसमे सौन्दर्य की जगह हास्य उत्पन्न हो गया| आप स्वयं देखें और निर्णय दें|
(१९९१)
गाँव ख़ुशबू का बस गया होगा, तुम जहाँ फूल से खिले होगे
रस्ते-रस्ते मचल उठे होंगे, जिनपे तुम दो कदम चले होगे
नूपुर औऽ हार, कंगन औऽ काजल, भाग्य अपना सराहते होंगे
वो तो पागल ही हो गया होगा जिससे तुम एक पल मिले होगे
(२०१०)
मॉल ख़ुशबू का बन गया होगा, तुम जो परफ़्यूम से खिले होगे
सारे रस्ते मचल उठे होंगे, जिनपे तुम कार से चले होगे
जींस और टॉप, चस्मा औऽ सेल्युलर भाग्य अपना सराहते होंगे
वो तो बेमौत मर गया होगा जिससे तुम हाय! कर चले होगे
--अमित
सामुदायिक बिस्तर (कम्युनिटी बेड)
13 years ago
2 comments:
Bahut Bhadiya....Badhai!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
अमित जी,
समय परिवर्तन का खूब खाका खींचा है आपने.
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