Sunday, September 5, 2010

ग़ज़ल - तलाशे-इश्क़ में सारी उमर तमाम हुई

















तलाशे-इश्क़ मे सारी उमर तमाम हुई
आके दहलीज पे इक बेवफ़ा के शाम हुई

ग़मे-फ़िराक़, ग़मे-कार, ग़मे-तनहाई
ज़िन्दगी रोज़ नये हादिसों के नाम हुई

क़त्ल उम्मीद हुई लब से पयाला फिसला
मजाले-ज़ीस्त थी जो शै वही हराम हुई

कौन क्या राज़ छुपाये है किसे क्या मालूम
नवाये-नफ़स भी मेरी सदाये-आम हुई

पैकरे-ख़ाक को फिर खा़क में मिलना है ’अमित’
है ये अफ़सोस के मिट्टी मेरी बदनाम हुई
अमित
शब्दार्थः- ग़मे-फ़िराक़= वियोग का दुःख; ग़मे-कार= कार्य या उद्यम का दुःख; ग़मे-तनहाई=एकाकी होने का दुःख; हादिसों = दुर्घटनाओं, विपत्तियो; मजाले-ज़ीस्त = जीवन की शक्ति; नवाये-नफ़स=साँस की आवाज़; सदाये-आम=सामान्यजन की पुकार; पैकरे-ख़ाक=मिट्टी का शरीर।

7 comments:

वीना श्रीवास्तव said...

पैकरे-ख़ाक को फिर खा़क में मिलना है ’अमित’
है ये अफ़सोस के मिट्टी मेरी बदनाम हुई

क्या खूब कहा है...

http://veenakesur.blogspot.com/

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

@ कौन क्या राज़ छुपाये है किसे क्या मालूम
नवाये-नफ़स भी मेरी सदाये-आम हुई

पैकरे-ख़ाक को फिर खा़क में मिलना है ’अमित’
है ये अफ़सोस के मिट्टी मेरी बदनाम हुई

बहुत अच्छे। आनन्द आ गया।
वैसे उर्दू की खुराक भी तगड़ी रही। आप ने उर्दू पढ़ी है?

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र said...

सारे ही शे’र सवा शे’र हैं, खतरनाक ख़्याल हैं।

राणा प्रताप सिंह (Rana Pratap Singh) said...

बेहतरीन ग़ज़ल| हर शे'र मार्के का है| दाद कबूल करें|
ब्रह्माण्ड

Pritishi said...

पैकरे-ख़ाक को फिर खा़क में मिलना है ’अमित’
है ये अफ़सोस के मिट्टी मेरी बदनाम हुई
Beautiful!

अमिताभ त्रिपाठी ’ अमित’ said...

@गिरिजेश राव जी,
उर्दू विधिवत नहीं पढ़ी बस उर्दू के शायरों को पढ़ते जो आ गयी बस वही। आगे से ख़ुराक पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करूँगा। :)

anurag tripathi said...

bahot acha likha hai.urdu pe b aapki pakad khoob hai.