Wednesday, October 13, 2010

स्वगत - २

दुस्तर अगाध भवनिधि में
है दिवास्वप्न की तरणी
शत घूर्णावर्त तरंगे
मथ देतीं जैसे अरणी

पथ निन्दित या अभिनन्दित
संकल्प-विकल्प-अनिश्चय
निज-कर्म-विपाक करेगा
किस पाप-पुण्य का संचय

ज्यों सूक्ष्म भार अंतर से
हो स्वर्ण-तुला में दोलन
लघु लाभ-हानि की गणना
करती मन में आड़ोलन

हैं सुख के क्षण उल्का से
जीवन की अमा-निशा में
तारक-मणियों से मण्डित
नभ, यद्यपि सभी दिशा में

संघर्ष विषय-संयम का
लेता नित नई परीक्षा
प्रायः अनंग के शर से
हो गई बिद्ध गुरु-दीक्षा

विचलन ही है यदि प्रचलन
तब चलन अरक्षित ऐसे
स्वानों के संरक्षण में
हो भोज्य सुरक्षित जैसे

किस प्रेरक की इच्छा से
आकर्षण और विकर्षण
विपरीत वायु के बल से
होते देखा है वर्षण

उत्तर अनेक प्रश्नों का
बस मात्र एक चुप्पी है
सृष्टा की सब मर्यादा
आकर के यहीं छिपी है

अमित

2 comments:

Akshitaa (Pakhi) said...

कित्ती सुन्दर कविता. ..अच्छी लगी. कभी 'पाखी की दुनिया' की भी सैर पर आयें .

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

आपकी प्रतिभा को नमन किये बिना नहीं रह पाई। चाहे किसी पर अप्रत्यक्ष आघात हो या अपने मन से मन की बात, सुंदर लेखन सुंदर ही होता है। आपकी लेखनी को प्रणाम! आपकी किताब का इंतज़ार है अब।